Book Title: Mallinatha Purana
Author(s): Sakalkirti Acharya, Gajadharlal Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 21
________________ जाय वह 'गुर्वाद्यनपह्नव' नाम का आचार है एवं जहाँ पर गुरु आदि की स्तुति तथा पूजा आदि का समारोह हो, वह 'बहुमानससमृद्धक' नाम का आठवाँ आचार भेद है। विद्वानों के द्वारा इन आठ प्रकार के आचारों के साथ जो ज्ञान पढ़ा जाय, वह 'ज्ञानाचार' कहा जाता है। यह ज्ञानाचार समस्त संसार का प्रकाश करनेवाला दीपक है एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाला है ।।६२-६७।। इस सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही समस्त संसार का ज्ञान होता है। कौन तत्व हितकारी है एवं कौन अहितकारी है ? यह पता भी इसी ज्ञान से लगता है । यह पदार्थ त्यागने योग्य है एवं यह पदार्थ नहीं त्यागने योग्य है, यह बात भी ज्ञान ही बतलाता है तथा यह बन्ध तत्व है, यह मोक्ष तत्व है, यह धर्म है, यह पाप || म है, यह कृत्य है, यह अकृत्य है; देव, गुरु एवं शास्त्र का स्वरूप यह है--सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । पात्र को दान देना 'दान' एवं कुपात्र को दान देना 'कुदान' कहलाता है तथा आत्मा का स्वरूप चैतन्य है, यह सब बात भी सम्यग्ज्ञान के द्वारा ही प्रगट होती है ।।६८-६६।। भगवान जिनेन्द्र ने लोक एवं अलोक के देखने में बाह्य अन्तरंग तत्वों को परखने के लिए ज्ञान को ही नेत्र कहा है; जिसके यह ज्ञानरूपी नेत्र नहीं है, वह इस संसार में सर्वथा अन्धा ही है-- केवल नेत्रों के रहते वह सूझता नहीं कहा जा सकता ।।७०।। मछलियों के बाँधने के लिए जिस प्रकार जाल रहता है, उसी प्रकार स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियाँ मछलियाँ हैं एवं उनके बाँधने के लिए यह सम्यग्ज्ञान जाल है, अर्थात पाँचों इन्द्रियों का दमन सिवाय सम्यग्ज्ञान के दूसरे से नहीं हो सकता तथा जिस प्रकार गजराजों के विघात करने के लिए सिंह समर्थ होता है, उसी प्रकार कामरूपी मदोन्मत्त गजराज को सर्वथा नष्ट करनेवाला यह सम्यग्ज्ञान ही बलवान सिंह है ।।७१।। यह संसारी जीवों का मन बन्दर के सदृश अत्यन्त चन्चल है अर्थात् बन्दर की जिस प्रकार प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है, उसी प्रकार इस मन की भी प्रतिक्षण क्रिया होती रहती है एवं उससे निरन्तर कर्मबन्ध होता रहता है, उस मनरूपी बन्दर को बाँधने के लिए यह सम्यग्ज्ञान पाश है तथा जिस प्रकार सूर्य समस्त अन्धकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार समस्त अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट करने के लिए भी यह सम्यग्ज्ञान प्रखर सूर्य है ||१० ।।७२।। मूल में शुभ एवं अशुभ के भेद से कर्म दो प्रकार माना है, उसके फल का भोग ज्ञानी भी करते हैं एवं अज्ञानी भी करते हैं; परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि समानरूप से भोग करने पर भी अज्ञानी के तो कर्मों का बन्ध होता | है एवं ज्ञानी के कर्मों की निर्जरा होती है तथा एक अन्य विलक्षण बात यह है कि तीव्र तप तपने पर भी जिस कर्म 444444 Jain Education international For Privale & Personal use only www.jainelibrary.org

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