Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 20
________________ १७] [मालारोहण जी मिट्टी में मिला देती है। शुभ-अशुभ क्रिया में मग्न होता हुआ जीव विकल्पी है, इससे दु:खी है- क्रिया संस्कार छूटकर शुद्ध स्वरूप का अनुभव होते ही जीव निर्विकल्प है इससे सुखी है। (समयसार कलश १०४) प्रश्न - यह कामना, वासना क्या है ? समाधान - काम ही कामना है इसको गीताजी में विशेषता से बताया है। यह कामना, वासना मोह से पैदा होती है। यह शरीर ही मैं हूँ, ऐसी मान्यता मिथ्यात्व है, जो संसार परिभ्रमण का कारण है और यह शरीरादि मेरे हैं, यह मान्यता मोह है जो अज्ञान रूप दुःख का कारण है। यह जीव अनादि से इसमें मैं और मेरेपने की मान्यता के कारण ही बंधा है, स्वयं परमात्म स्वरूप होते हुए दुःख दुर्गति भोग रहा है। शरीर में अहंता और परिवार में ममता-यही मोह है। अनुकूल पदार्थ, वस्तु, व्यक्ति घटना आदि के प्राप्त होने पर प्रसन्न होना और प्रतिकूल के प्राप्त होने पर उद्विग्न होना। संसार में, परिवार में, विषमता, पक्षपात, मात्सर्य आदि विकार होना यह सब मोह का दलदल है। इस मोह रूपी दलदल में जब बुद्धि फँस जाती है, तब मनुष्य किं कर्त्तव्य विमूढ़ हो जाता है फिर उसे कुछ भी हिताहित नहीं सूझता । शरीराशक्ति से कामना पैदा होती है, अंत:करण में छिपा हुआ राग रहता है, उसका नाम वासना है, उसे ही आसक्ति और प्रियता कहते हैं। कामना पूर्ति होने की सम्भावना आशा है। कामना पूर्ति होने पर अधिक की चाह लोभ है। विषयों का अनुराग-काम है । इच्छित वस्तुओं में बाधक कारण होने पर अपना संतुलन खो जाना क्रोध है । - पर का शरीरादि विषयों का चिन्तवन करने से आसक्ति पैदा होती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है, कामना से उद्वेग काम-क्रोधादि पैदा होते हैं। उद्वेग होने पर सम्मोह मूढ़ भाव हो जाता है, सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है, स्मृति भ्रष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है। जब तक यह कामना वासना रूप मोह रूपी राक्षस सिर पर चढ़ा रहता है, तब तक जीव की अपने आत्म स्वरूप की दृष्टि नहीं होती । गाथा क्रं. ३ ] [ १८ शुद्ध स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है, इसके बिना जो कुछ है शुभ क्रिया रूप अशुभ क्रिया रूप अनेक प्रकार सब बंध का कारण है। (समयसार कलश १०५) प्रश्न - इससे छूटने, बचने और भेदज्ञान पूर्वक अपना आत्म चिन्तवन करने के लिए क्या करना चाहिए ? समाधान - इसके भी कुछ बाधक कारण हैं, उन्हें हटाना, उनसे बचना भी जरूरी है क्योंकि संसार में प्रत्येक जीव-द्रव्य (धन) का संग्रह करने और भोग भोगने में ही लगा है, इसके कारण उसे आगे पीछे का कोई होश ही नहीं है । इसके लिये निम्न बातों का पालन करना आवश्यक है - (१) व्यर्थ चर्चा - विकथाओं से दूर रहना, वाणी का संयम रखना । (२) बुरी आदतों - व्यसनों का त्याग करना आवश्यक है। (३) लोभ प्रवृत्ति छोड़ना - अधिक द्रव्य (धन) संग्रह न करना । द्रव्य होने पर दया दान-परोपकार में लगाना । - (४) लौकिक पदार्थों की आशा छोड़ना । (५) कामनाओं का त्याग करना । (६) एकान्त में रहना । (७) प्रारब्ध वश प्राप्त हुये सुख-दुःख में विचलित न होना । (८) दुःख के कारण और मोहरूप पर के ( अनात्म) चिन्तन को छोड़कर आनन्द स्वरूप आत्मा का चिन्तन करना । (९) बीती हुई बातों को याद न करना । (१०) भविष्य की चिन्ता न करना । (११) वर्तमान में प्राप्त हुये सुख-दुःख में सम भाव में रहना । (१२) उदासीन वृत्ति होना, इस प्रकार से अपने उपयोग को हटाकर अपने कल्याण, स्वरूप शुद्धात्मा का भेदज्ञानपूर्वक अनुभव करना चाहिए।

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