Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 125
________________ २२७] [मालारोहण जी गाथा क्रं.३२] [ २२८ होती है। स्वानुभूति होने पर अनाकुल, आल्हाद मय एक समस्त ही विश्व पर तैरता हुआ, विज्ञानघन, परम पदार्थ, परमात्मा अनुभव में आता है, ऐसे अनुभव बिना आत्मा सम्यक् रूप से दृष्टिगोचर नहीं होता, श्रद्धा में नहीं आता इसलिए स्वानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन धर्म का प्रारम्भ ही नहीं होता। अन्तर में स्व संवेदन ज्ञान खिला, वहाँ स्वयं को उसका वेदन हुआ फिर कोई दूसरा उसे जाने या ना जाने, उसकी ज्ञानी को अपेक्षा नहीं है। आत्मा का स्वभाव कालिक परम पारिणामिक भाव रूप है, उस स्वभाव को पकड़ने से ही मुक्ति होती है। प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य गुण पर्याय से है। जीव-जीव के गुण पर्याय से है और, अजीव-अजीव के द्रव्य गुण पर्याय से है। इस प्रकार सभी द्रव्य परस्पर असहाय हैं, प्रत्येक द्रव्य स्वसहायी है तथा पर से असहायी है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, कोई किसी का कुछ नहीं कर सकता। अखण्ड द्रव्य और पर्याय दोनों का ज्ञान होने पर अखण्ड स्वभाव की ओर लक्ष्य रखना, उपयोग की एकाग्रता अखण्ड द्रव्य की ओर ले जाना, वह अन्तर में समभाव को प्रगट करता है, स्वाश्रय द्वारा बंध का नाश करती जो निर्मल पर्याय प्रगट हुई, उसे भगवान मोक्षमार्ग कहते हैं। जिस धर्मात्मा ने निज शुद्धात्म द्रव्य को स्वीकार करके परिणति को स्व अभिमुख किया वह प्रतिक्षण मुक्ति की ओर गतिशील है. वह मोक्षपुरी का प्रवासी हो गया। अनुभव प्रमाण मुक्ति। आत्म अनुभव के बिना सब कुछ शून्य है। लाख कषाय की मंदता करो, व्रत, संयम, तप, करो या लाख शास्त्र पढो किन्तु अनुभव बिना सब कुछ व्यर्थ है। यदि कुछ भी न सीखा हो पर अनुभव किया हो। तो उसने सब कुछ सीख लिया, उसे बात करना भले ही न आये, तो भी वह केवलज्ञान, मुक्ति प्राप्त कर लेगा। सम्यग्दृष्टि जीव अपने स्वरूप को जानकर उसकी प्रतीति कर स्वरूपाचरण कर ऐसा अनुभव करता है कि मैं तो मात्र चैतन्य ज्योति हूँ, शुब बुद्ध ज्ञानानन्द स्वभावी ज्ञानमात्र हूँ। धुवधाम रूपी ध्येय के ध्यान की प्रचण्ड धूनी, उत्साह व धैर्य से धुनने वाला, ऐसे धरम का घारक धर्मी धन्य है। वीतराग के मार्ग में तो सम्यक्त्व की प्राथमिकता है, प्रथम तो भेवज्ञान होना चाहिए। ऐसा सम्यक्त्व तो स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है तथा ऐसा श्रद्धान शुद्ध निश्वयनय के भावाभ्यास करने से होता है: अतः शबनय के अनुसार श्रद्धान कर सम्यग्दति होना. वह प्रारम्भिक धर्म है, तत्पश्चात् चारित्रादि होते हैं। ज्ञायक स्वभावी चैतन्य आत्मा की स्वानुभूति के बिना ज्ञान होता नहीं है और ज्ञायक के दृढ़ आलम्बन द्वारा आत्म द्रव्य स्वभाव रूप से परिणमित होकर जो स्वभाव भूत क्रिया होती है, उसके सिवाय कोई क्रिया नहीं है। पौदगलिक क्रिया आत्मा कहाँ कर सकता है? जड के कार्य रूप तो जड परिणमित होता है, आत्मा से जड़ के कार्य कभी नहीं होते। शरीरादि के कार्य मेरे नहीं है और विभाव कार्य भी स्वरूप परिणति नहीं है, मैं तो ज्ञायक हूँ ऐसी साधक की परिणति होती है। सच्चे मोक्षार्थी को अपने जीवन में इतना दृढ़ होना चाहिए. भले प्रथम सविकल्प रूप हो परन्तु ऐसा पक्का निर्णय करना चाहिए पश्चात् निर्विकल्प स्वानुभूति करके स्थिरता बढ़ते-बढ़ते जीव मोक्ष प्राप्त करता है, इस विधि के सिवाय मोक्ष प्राप्त करने की अन्य कोई विधि उपाय मार्ग नहीं है। प्रश्न-यह बात,ऐसा निर्णय, ऐसा मार्ग तो हर जगह नहीं बताया और सब जीवों को इस बात का पता भी नहीं चलता, संसार में तो लोग जाति, सम्प्रदाय, मान्यतायें बांधे हुये हैं? समाधान - जिस जीव की पात्रता पकती है, होनहार उत्कृष्ट होती है। काल लब्धि आती है उसे सब निमित्त सहज में मिल जाते हैं। धर्म किसी जाति सम्प्रदाय से नहीं बंधा, जीव भी किसी बंधन में नहीं बंधे, यह सब संसार चक्र

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