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[मालारोहण जी
करना चाहिए पश्चात् उसमें लीन हो तो आत्मा के अपूर्व आनन्द का अनुभव हो। इसके लिए पुरूषार्थ करके विकल्प तोड़कर आत्मा में लीन होना उससे अपूर्व आनन्द का अनुभव होगा यही सम्यग्दर्शन है।
यह मनुष्य भव प्राप्त करके यदि आत्मा में भव के अंत की झंकार जाग्रत नहीं हुई तो जीवन किस काम का ?
जिसने जीवन में भव से छूटने का उपाय नहीं किया उसके और कीड़े कौओं के जीवन में क्या अन्तर है ? एक बार तो ज्ञान स्वभाव का ऐसा दृढ़ निर्णय हो जाना चाहिए कि बस मैं आत्मा शुद्धात्मा-परमात्मा हूँ फिर पुरुषार्थ स्वोन्मुख ही ढलता है। सारा जगत भले ही बदल जाये किन्तु स्वयं ज्ञान स्वभाव शुद्धात्म तत्व का जो निर्णय किया वह नहीं बदलता, उस निर्णय मे शंका नहीं होती ऐसे निशंक निर्णय के बिना पुरुषार्थ स्वोन्मुख ढलता ही नहीं है। ऐसी ही वस्तु की स्थिति है।
एक समय का भूला हुआ भगवान दूसरे समय भूल का नाश कर भगवान बन सकता है। कल का लकड़हारा आज भगवान बन गया ऐसे कई उदाहरण सामने हैं।
किसी भी पर द्रव्य में शक्ति नहीं है कि जीव को संसार में भटकाये, जीव स्वयं अपनी ही भूल से भटकता है, तब कर्म निमित्त होते हैं व स्वयं अपनी ही समझ से मुक्ति पाता है। स्वयं की बात है, स्वयं देखे जाने और उस तरफ का पुरुषार्थ करे तो सब कुछ सहज में हो सकता है। भाई ! व्यर्थ कोलाहल करने से क्या प्रयोजन है ? पांच इन्द्रियों के विषयों को देखना बन्द करके अन्दर देखो तो अन्दर एक चैतन्य धारा बह रही है। उसका शरीर वाणी और पुण्य पाप के परिणाम के साथ कोई संबन्ध नहीं है।
जिसको यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट हुई, वह शुद्ध द्रव्य के अवलम्बन द्वारा अन्तर स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता जाता है परन्तु जब तक अपूर्ण दशा है, पुरुषार्थ मन्द है, पूर्ण रूप से शुद्ध स्वरूप में स्थिर नहीं हो सकता। तब तक वह शुभ परिणाम में संयुक्त होता है परन्तु वह उन्हें आदरणीय नहीं मानता है, उनकी स्वभाव में नास्ति है; अतएव दृष्टि उनका निषेध करती है। ज्ञानी को हर समय यही भावना वर्तती है कि इसी क्षण पूर्ण वीतरागी हुआ जाता हो तो मुझे यह शुभ परिणाम भी नहीं चाहिए परन्तु उसे अपूर्ण दशा वश शुभ
गाथा क्रं. ६ ]
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भाव आये बिना नहीं रहते । अतः स्वरूप में स्थित रहने के लिए निर्मोही, निस्पृह, आकिंचन, वीतरागी होना आवश्यक है तभी उस दशा में रह सकते हैं।
प्रश्न- यह सब तो त्यागी साधु संयमी होने पर ही संभव है यहाँ घर परिवार संसार में रहते तो यह नहीं हो सकता है ?
समाधान – नहीं, यह पहले घर परिवार संसार में रहते हुये इसी दशा
में साधना पड़ता है। जिसकी घर माहिं न बनी वह वन माहिं क्या करेगा ? धर्म का मार्ग घर से ही शुरू होता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को ही होता है। अनादि से सभी जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि हैं जब भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान हुआ तब सम्यग्चारित्र होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है, यही धर्म का सनातन मार्ग है। जिसकी दृष्टि पलट जाती है उसकी बुद्धि सुलट जाती है। उसके विवेक का जागरण हो जाता है और वह स्वत: ही धर्म के मार्ग पर चलने लगता है। उसे पाप विषय कषायों से स्वतः अरूचि विरक्ति होने लगती है। उसके जीवन में व्रत, नियम, संयम, त्याग, होने लगता है और इसी क्रम से साधु पद से सिद्ध पद होता है। सद्गुरू श्री तारण स्वामी ने इसीलिए चौथी गाथा में नर और छठी गाथा में दो बार नर की बात कही। धर्म का मार्ग चर्चा करने, बातें मारने से नहीं चलता, वह तो स्वयं जीवन में आचरण रूप होता है, इसके लिए पहले सुनें समझें, वस्तु स्वरूप तत्व का निर्णय करें, भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दृष्टि बने । सत्समागम द्वारा आत्मा को पहिचान कर आत्मानुभव करना यही प्रथम कर्तव्य है, वही पुरुषार्थी नर है।
आत्मानुभव का ऐसा माहात्म्य है कि कैसे ही कर्मोदय आने पर सम्यग्दृष्टि विचलित नहीं होता, तीनों काल व तीनों लोक की प्रतिकूलताओं के ढेर एक साथ आ जायें तो भी ज्ञाता रूप से रह कर उन सभी को सहन करने की शक्ति आत्मा के ज्ञायक स्वभाव की एक समय की पर्याय में विद्यमान है।
जिसने आत्मा को शरीरादि व रागादि से भिन्न जाना है, उसे यह कर्मों के उदय संयोगादि जरा भी प्रभावित नहीं कर सकते, चैतन्य अपनी ज्ञातृधारा से जरा भी विचलित नहीं होता।