Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 107
________________ १९१] [मालारोहण जी गाथा क्रं.२४] [ १९२ छोड़ दिया है, छूट गया है (ते) वह (माल दिस्टं) इस रत्नत्रय माला को देखते हैं (हिदै कंठ रुलितं) उनके हृदय कंठ पर यह माला झूलती है। विशेषार्थ- जिन्हें निज स्वभाव का अनुभव हो गया है । जो शुद्ध दृष्टि निश्चय सम्यक्त्व से युक्त है और जिनवाणी की यथार्थ प्रतीति सहित अपने इष्ट शुद्धात्म स्वरूप की साधना में रत रहते हैं तथा आनन्द मय रहने में जो बाधक कारण आशा, भय, लोभ, स्नेह, आदि का त्याग करते हैं, वे ज्ञानी अपने हृदय कंठ में ज्ञान गुणमाला को झुलती हुई देखते हैं अर्थात निज शुद्धात्म तत्व का स्वसंवेदन में प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं, अनुभवन करते हैं और आनन्द-परमानन्द में रहते हैं। यहाँ भगवान महावीर, राजा श्रेणिक की शंका का समाधान करते हैं कि जो सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व से युक्त हैं जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है. जिनवाणी में आया है, वैसा ही अपने शुद्धात्म स्वरूप को जाना और निज अनुभूति से यह बात सत्य है, ध्रुव है,प्रमाण है ऐसा स्वीकार कर उसकी साधना करते हैं क्योंकि अभी मात्र श्रद्धा अनुभूति की ही शुरूआत हुई है। अनादि अज्ञान मिथ्यात्व से पीछा छूटा, चार अनन्तानुबंधी और तीन मिथ्यात्व प्रकृतियों का उपशम, क्षय, क्षयोपशम ही हुआ है । अभी चारित्र मोहनीय तथा दर्शन मोहनीय की कौन सी स्थिति बनी है तथा पूर्व कर्म बन्ध, संस्कार, संयोग तो साथ लगे हैं। अब इसमें जीव की पात्रता,पुरूषार्थ का कितना जोर लगता है, ज्ञान की क्या स्थिति है ? यह सब देखना-जानना आवश्यक है और सबसे बड़ी बात अभी अव्रत दशा में, परिवार में रहते आशा, भय, लोभ, स्नेह, आदि का संबंध है। इनके रहते हुये अपने आत्म स्वरूप का स्मरण ध्यान कैसे रह सकता है ? रत्नत्रय मालिका तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र तीनों की एकता रूप अर्थात् एक स्थिति में होने पर ही उस पात्रता अनुसार मार्ग पर चलना होता है और तभी वह आनन्द परमानन्द की दशा बनती है। यह अध्यात्म साधना का मार्ग सूक्ष्म है, अन्तर प्रवृत्ति, जीव की भाव दशा, कर्मों की सत्ता, स्थिति, अनुभाग, ज्ञान बल और पुरूषार्थ जैसा काम करता है, उसी अनुसार पर्याय की पात्रतानुसार परिणमन चलता है। मूल में द्रव्य स्वभाव तो परिपूर्ण शुद्ध परमानन्द मयी है, उसकी पर्याय में अभिव्यक्ति प्रगटपना कितने अंश में कितना है ? यही साधना मुक्ति का मार्ग है। सम्यग्दर्शन होने से यह बात निश्चित हो गई कि अब संसार का अन्त आ गया-दो, चार, दश भव में मुक्त होगा ही अळावन लाख योनियों के जन्म मरण का चक्र छूट गया, ४१ कर्म प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति हो गई, पर अकेले सम्यग्दर्शन मात्र से केवल ज्ञान या मोक्ष नहीं हो सकता सम्यग्दर्शन के बाद भी जितना मोह, राग, द्वेष है, उतना दु:ख है, उन रागद्वेषादि को भी छोड़कर जीव जब शुद्धोपयोग रूप होता है तब ही वह केवलज्ञान तथा मोक्ष को पाता है। प्रश्न - "जे सुद्ध विस्टी संमिक्त जुक्त" से क्या अभिप्राय है इसे दो बार क्यों कहा है ? समाधान - सम्यक्त्व के बिना स्वानुभव नहीं होता और स्वानुभव पूर्वक ही सम्यग्दर्शन होता है। स्वानुभव एक दशा (पर्याय) है यह दशा जीव को अनादि से नहीं हुई, परन्तु नई प्रगट होती है। इस स्वानुभव दशा की बहुत महिमा है। स्वानुभव में ही मोक्षमार्ग है। स्वानुभव में जो आनन्द है, वह आनन्द जगत में अन्यत्र कहीं पर भी नहीं है। इस जगत में अनन्त जीव हैं, प्रत्येक जीव चैतन्य मय परिपूर्ण ज्ञान सुख स्वभावी परमात्म स्वरूप है परन्तु ऐसे अपने स्वरूप को जीव स्वयं नहीं देखता, अनुभव नहीं करता, इससे अनादि से मिथ्यावृष्टि अज्ञानी दर्शन मोहांध है। अनादि से अपने सच्चे स्वरूप को भूलकर पर भावों में ही तन्मय हो रहा है। स्व-पर की जैसी भिन्नता है, वैसी यथार्थ नहीं जानता और विपरीत मानता है। यह शरीर ही मैं-यह शरीरादि मेरे हैं, और मैं इनका कर्ता हूँ इस मान्यता का नाम-मिथ्यात्व है। कोई मुमुक्षु जीव जब अन्तर के पुरूषार्थ से स्व-पर के यथार्थ श्रद्धान रूप तत्वार्थ श्रद्धान करता है, तब वह जीव सम्यक्त्वी होता है। स्व-क्या ? पर क्या ? इन सबको भेदज्ञान से अच्छी तरह से पहिचान कर प्रतीति करने से

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