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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.३०]
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रागांश होता है, जिसका प्रति समय उनकी दृष्टि निषेध करती रहती है। एक समय के लिए भी चारित्र मोह स्वरूपी रागांश को वह अपना कर्तव्य नहीं समझते, जो कि प्रत्यक्ष दु:ख रूप है। अत: बारम्बार स्व में स्थित होते हुए रागांश को तोड़ते हुए वह शुद्ध सिद्ध रूप हो जाते हैं।
प्रश्न- सम्यक्त्व के पांच भेदों का स्वरूप और विशेषता क्या है? समाधान - सम्यक्त्व सच्ची श्रद्धा को कहते हैं। इसके दो भेद हैं
(१) सम्यक्त्व -देव, गुरू, धर्म, सात तत्व, सत्समागम आदि से जो वस्तु का स्वरूप जाना जाता है, उसका विश्वास कर सत्श्रद्वान किया जाता है, वह सम्यक्त्व है, इसे ही व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं।
(२) सम्यग्दर्शन-भेदज्ञान पूर्वक शरीरादि से भिन्न जो निज शुद्धात्मानुभूति होती है, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है। अनुभूतियुत प्रतीति ही कार्यकारी यथार्थ होती है।
१.आज्ञा सम्यक्त्व- देव, गुरू, शास्त्र की आज्ञानुसार जीवादि सात तत्वों का यथार्थ श्रद्धान करना,आज्ञा सम्यक्त्व है।
२. उपशम सम्यक्त्व- तीन मिथ्यात्व- १. मिथ्यात्व २. सम्यमिथ्यात्व ३. सम्यग्प्रकृति मिथ्यात्व । चार अनंतानुबंधी कषाय - १. क्रोध २. मान ३. माया ४. लोभ । इन सात प्रकृतियों के उपशम होने पर जो निज शुद्धात्मानुभूति होती है। वह उपशम सम्यक्त्व है। उपशम सम्यक्त्व की स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है, इसकी अनुभूति कुछ समय की होती है, इसके बाद कर्मोदय जन्य पर्यायों में उलझ जाता है। उपशम सम्यक्त्वी ग्यारहवें गुणस्थान तक जा सकता है। इस सम्यक्त्व वाले का संसार काल अधिक होने से दश पन्द्रह भव तक मुक्त होने में लग सकते हैं।
३. वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व-छह प्रकृतियों के क्षय और सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से यह वेदक सम्यक्त्व होता है, यह सातवें गुणस्थान तक जाता है। इस सम्यक्त्व वाले को संसार से मुक्त होने में सात-आठ भव तक लग सकते हैं।
४. क्षायिक सम्यक्त्व-यह सातों प्रकृतियों के क्षय से होता है। इसकी स्थिति स्थायी रहती है, इसमें सारे कर्मों का क्षय ही होता है। क्षायिक सम्यक्त्वी
जीव तद्भव या तीसरे भव से मोक्ष चला जाता है। यह केवली या श्रतकेवली के पादमूल में होता है, वर्तमान (पंचमकाल) में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता।
५. शुद्ध सम्यक्त्व-तीनों सम्यक्त्व (उपशम, वेदक, क्षायिक) से परे जो अपने में परिपूर्ण शुद्ध हो गया, जो निरंतर अपने स्वरूप की अनुभूति में ही रत है वह शुद्ध सम्यक्त्व है। यह अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा के होता है।
सम्यग्दर्शन का होना ही संसार की मौत है, करणानुयोग के अनुसार पांच लब्धि पूर्वक करण लब्धि सहित काललब्धि आने पर अर्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर जीव को अपने स्वरूप की अनुभूति, बोध पूर्वक सम्यग्दर्शन होता है।
यहां संक्षेप में वर्णन किया है विशेष जानकारी के लिए गोम्मटसार जयधवल, महाधवल आदि करणानुयोग के ग्रन्थ देखें।
मूल बात तो निजशुद्धात्मानुभूति अपने परमात्म स्वरूप के दर्शन होना है, इसके बाद तो फिर सब अपने आप होता है। जैसी जीव की पात्रता होनहार होती है, वैसे योग निमित्त-मिलते हैं और वैसा सब अपने आप होता है, इसमें पुरूषार्थ अपेक्षा वर्तमान परिस्थिति का बोध कराने के लिए यह सब व्यवहार अपेक्षा कहने में आता है।
राजा श्रेणिक ने यह सब सना और फिर प्रश्न किया कि प्रभो! जब सम्यग्दर्शन की इतनी महिमा विशेषता है.तो सम्यग्दहि जीव भी कुछ न कुछ तो करता ही होगा, उसका पुरुषार्थ क्या है कैसे आनन्द-परमानन्द में रहता है, कैसे यह रत्नत्रय मालिका दिखती है?
इसके समाधान में भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में आता है इसी संदर्भ में यह आगे की गाथा है
गाथा-30 जे चेतना लष्यनो चेतनित्वं, अचेतं विनासी असत्यं च तिक्तं । जिन उक्त सार्धं सु तत्वं प्रकासं,ते माल दिस्टं हिदै कंठ रूलित।।
शब्दार्थ-(जे) जो (चेतना लष्यनो) चैतन्य लक्षण मयी (चेतनित्वं)