Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 116
________________ २०९] [मालारोहण जी गाथा क्रं.२८] [२१० उसका आत्मा स्वयं हो जाता है अर्थात् परम इष्ट पद की प्राप्ति होती है। जय हो, जय हो, भगवान महावीर स्वामी की जय हो... दूसरे दिन राजा श्रेणिक समवशरण में आकर फिर प्रश्न करता है कि प्रभो । ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव जिसके सब आशा, स्नेह, लाज, भय, गारव छूट गये, फिर वह करता क्या है? उसको तो रत्नत्रय मालिका झुलती दिखती है? इसका समाधान भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि में आता है जो आगे गाथा है गाथा-३८ पदस्त पिंडस्त रूपस्त चेतं, रूपा अतीतं जे ध्यान जुक्तं । आरति रौद्रं मय मान तिक्तं, ते माल दिस्टं हिदै कंठ रूलितं ॥ शब्दार्थ-(पदस्त पिंडस्त रूपस्त) यह धर्म ध्यान के भेद हैं, पदस्थ पिंडस्थ रूपस्थ (चेतं) चिन्तन करते हैं (रूपा अतीतं) रूपातीत (जे) जो (ध्यान जुक्तं) ध्यान में लीन रहते हैं (आरति )आर्तध्यान (रौद्र) रौद्रध्यान (मय) मद (मान) गारव अहंकार (तिक्तं) छूट जाता है (ते) वह (माल दिस्ट) रत्नत्रयमालिका को देखते हैं (हिदै कंठ रूलित) हृदय कंठ में झुलती हुई। विशेषार्थ-जो ज्ञानी चैतन्य स्वरूप में स्थित होने के लक्ष्य से पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ, धर्म ध्यान में चित्त लगाते, निज स्वभाव का चिन्तवन करते हैं और सिद्ध के समान कर्मों से रहित निज स्वभाव के रूपातीत ध्यान में लीन होते हैं तथा जिनके आर्त, रौद्र ध्यान, मद, मान आदि विकारी भाव छूट गये हैं वे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखते हैं अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप का स्वानुभूति में प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। यहाँ भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि में बताया जा रहा है कि जो साधु होते हैं वे मात्र ज्ञान-ध्यान में ही लीन होते हैं और कुछ नहीं करते। ज्ञान, ध्यान, तप ही साधु जीवन है। जिसका सब पाप, विषय, कषाय छूट गया आशा, स्नेह, लोभ लाज, भय, गारव विला गया, सब संयोग सम्बन्ध छूट गये, उसे अब करना रहा ही क्या? वह तो अपने स्वरूप में लीनता रूप आत्म ध्यान ही करता है। अभी छटा, सातवा गुणस्थानवती होने से धर्म ध्यान ही चलता है।श्रेणी माउने पर शक्ल ध्यान होता है। जो आठवें गुणस्थान से सीधा ले जाता है। जिससे केवलज्ञान प्रगट होता है। अभी धर्म ध्यान की साधना में पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यान का अभ्यास, साधना करता है। धर्म ध्यान के चार भेद हैं-(१) आज्ञा विचय (२) अपाय विचय (३) विपाक विचय (४) संस्थान विचय। इन्हीं के अन्तर्गत यह पदस्थ, पिंडस्थ, ध्यान आते हैं तथा जिसके आर्त, रौद्र ध्यान, मद, मान आदि छूट गये हैं वह रत्नत्रयमालिका को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखता है अर्थात् उसे अपने शुद्धात्मस्वरूप का निरन्तर स्मरण ध्यान रहता है और इससे वह अतीन्द्रिय आनन्द, परमानन्द में मगन रहता है। आर्त, रौद्रध्यान के भी चार-चार भेद हैं। आर्त ध्यान के चार भेद - (१) इष्ट वियोग (२) अनिष्ट संयोग (३) पीड़ा चिन्तवन (४) निदान बंध । दुःख-असाता रूप भावों में बहना और उसी स्थिति में रहना आर्त ध्यान है। रौद्र ध्यान के चार भेद हैं - (१) हिंसानन्दी (२) मृषानन्दी (३) चौर्यानन्दी (४) परिग्रहानन्दी। दुष्टता रूप कठोर परिणामों में बहना और उस स्थिति में रहना रौद्र ध्यान है। हिंसा में आनन्द मानना, झूठ, चोरी, परिग्रह में आनन्द मगन हो जाना, यह सब रौद्र ध्यान है। चौथे गुणस्थानवर्ती को -४ आर्त ध्यान, ४ रौद्र ध्यान, २ धर्म ध्यान, अप्रत्याख्यान कषाय, छहों लेश्यायें होती हैं। पांचवे गुणस्थानवती को-४ आर्त ध्यान, ४ रौद्र ध्यान, ३ धर्म ध्यान, प्रत्याख्यान कषाय, शुभ लेश्या होती है। छठे गुणस्थानवर्ती को-३ आर्त ध्यान,४ धर्म ध्यान तथा संज्वलन कषाय, शुभ लेश्या होती है। सातवें गुणस्थानवर्ती को -४ धर्म ध्यान होते हैं।

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