Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 112
________________ २०१] [मालारोहण जी गाथा क्रं.२६] [ २०२ मालिका को धारण कर अमरत्व पद पाना चाहते हैं आनन्द-परमानन्द में रहते हुए जिन्हें परमात्मा होना है, उन्हें यह सब छोडना होगा, संसार और मोक्ष यह दोनों विपरीत मार्ग हैं। संसार में रहने वाले के लिए भी खुला मार्ग पड़ा है और मोक्ष चाहने वाले को भी खुला मार्ग पड़ा है। दोनों का परिणमन भी सामने है, अब जो जिसे इष्ट हो, रूचे, वह उस मार्ग पर चले,यहाँ किसी का किसी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। पूर्ण स्वतंत्रता, स्वाधीनता है, जैसी जिसकी भावना, धारणा हो वह उस रूप चलता ही है, रहता ही है। यहाँ तो एक जीव का दूसरे जीव से कोई सम्बन्ध नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, न कर सकता, अपनी-अपनी देखना है। अनन्त जीव हैं और संसार भी अनादि अनंत है। अपने रहने न रहने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है, जिसकी दृष्टि पलट गई है,जो सम्यग्दृष्टि है, जिन्हें वस्तु स्वरूप और सिद्धान्त का निर्णय ज्ञान है, जो मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये यह बात है। शेष तो संसार का मजा मौज लूट ही रहे हैं । इसकी फिकर मत करो, अपनी फिकर करो। सम्यग्दृष्टि को आत्मा के सिवाय बाहर कहीं अच्छा नहीं लगता, जगत की कोई वस्तु सुन्दर नहीं लगती, जिसे चैतन्य की महिमा एवं रस लगा है। उसको बाह्य विषयों का रस टूट जाता है, कोई पदार्थ सुन्दर या अच्छा नहीं लगता। अनादि अभ्यास के कारण, अस्थिरता के कारण, स्वरूप में नहीं रहा जाता, इसलिए उपयोग बाहर आता है, उसे समेटने के लिए ही यह सब लगी लिपटी सफाई की जाती है। साधक दशा में शुभ भाव बीच में आते हैं परन्तु साधक उन्हें छोड़ता जाता है। सम्यग्दृष्टि को ज्ञान वैराग्य की ऐसी शक्ति प्रगट होती है कि श्रावक दशा में होने पर भी सभी कार्यों में स्थित होने पर भी लेप नहीं लगता, निर्लेप रहते हैं अर्थात् कर्म बन्ध नहीं होता। ज्ञानधारा और कर्मधारा दोनों भिन्न परिणमती हैं, अल्प अस्थिरता है, वह अपने पुरुषार्थ की कमजोरी से होती है, उसे दूर करके जब निज पुरूषार्थ जागृत होता है, तब अखंड द्रव्य को ग्रहण करके प्रमत्त-अप्रमत्त स्थिति में झूलते हैं, वह मुनिराज धन्य हैं। साधु निज स्वरूप में निरन्तर जाग्रत रहते हैं, द्रव्य स्वभाव तो निवृत्त ही है। उसका दृढ़ता से अवलम्बन लेकर भविष्य के विभावों से निवृत हो जाना ही मुक्ति है। रत्नत्रय मालिका जिनके हृदय कंठ पर सुशोभित हो गई, मुक्ति तो उनके हाथ में आ गई, स्वरूप की लीला जात्यन्तर है। मुनिराज को एकदम स्वरूप रमणता जाग्रत है। अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में लीनता होती जाती है। मुनि असंग रूप से आत्मा की साधना करते हैं। स्वरूप गुप्त हो गये हैं। प्रचुर स्व संवेदन ही मुनि का भावलिंग है। अन्तर्मुहूर्त में स्वभाव में डुबकी लगाते हैं, अन्तर में निवास के लिए ध्रुवधाम मुक्ति महल मिल गया है, उसके बाहर आना अच्छा नहीं लगता है। साधक दशा इतनी बढ़ गई है कि द्रव्य तो कृत कृत्य ही है परन्तु पर्याय में भी अत्यन्त कृत-कृत्य हो जाते हैं। आत्मा तो निवृत्त स्वरूप शान्त स्वरूप है । मुनिराज को उसमें से बाहर आना प्रवृत्ति रूप लगता है, उच्च से उच्च शुभ भाव भी बोझ रूप लगते हैं। शाश्वत आत्मा की ही उग्र धुन लगी रहती है, आत्मा के प्रचुर स्व संवेदन में से बाहर आना नहीं सुहाता। सम्यग्दृष्टि जीव को तथा मुनि को भेदज्ञान की परिणति तो चलती ही रहती है। सम्यग्दृष्टि ग्रहस्थ श्रावक को उसकी दशा के अनुसार उपयोग अन्तर में जाता है और बाहर आता है। मुनिराज का उपयोग तो अतिशीघ्रता से बारम्बार अन्तर में उतर जाता है। सम्यग्दृष्टि को अपने गुणस्थान के अनुसार पुरूषार्थ वर्तता है। इसलिए लोगों का भय त्याग कर - शिथिलता छोड़कर - स्वयं दृढ पुरूषार्थ करना चाहिए "लोग क्या कहेंगे" किसका क्या होगा? ऐसा देखने से इस रत्नत्रय मालिका को उपलब्ध नहीं किया जा सकता। साधक को एक शुद्धात्मा का ही संबंध होता है, जो निर्भय रूप से साधु पद का उग्र पुरुषार्थ करता है, बस वही रत्नत्रय मालिका को प्राप्त करने मुक्ति श्री का वरण करने का अधिकारी है। जब राजा श्रेणिक ने यह सब सुना और उपस्थित जन समूह की ओर देखा, भगवान के समवशरण में एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, बारह हजार साधु और छत्तीस हजार आर्यिकायें थीं, इन सबको देखकर राजा

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