________________
१७१]
[मालारोहण जी
गाथा क्रं. १८]
[ १७२
इसी प्रकार श्रमणाभास (साधु) द्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादि रूप अशुभ भाव सहित वर्तता है, वह निज रूप से भिन्न ऐसे पर द्रव्यों के वश है इसलिए उस जघन्य रत्नत्रय परिणति वाले जीव को स्वभावाश्रित, निश्चय धर्मध्यान स्वरूप-परम आवश्यक कर्म नहीं है, वह श्रमणाभास भोजन हेत द्रव्यलिंग ग्रहण करके स्वात्म कार्य से विमुख रहता हुआ परम तपश्चरणादि के प्रति भी उदासीन लापरवाह रहकर मन्दिर, तीर्थक्षेत्र, समाज-सम्प्रदाय में फंसा रहता है।
कलिकाल में भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादि रूप मल की कीचड़ से रहित और सद्धर्म रक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है, जिसने अनेक परिग्रहों के विस्तार को छोड़ा है और जो पाप रूपी अटवी को जलाने वाली अग्नि है, ऐसा मुनि इस काल भूतल में तथा देव लोक में देवों से भी भली-भाँति पुजता है।
जो जीव अन्य वश है, वह भले मुनि भेषधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दु:ख को भोगने वाला है। जो जीव स्व-वश है, वह जीवन मुक्त है, जिनेश्वर से किंचित् न्यून है।
जो जीव जिनेन्द्र के मुखारविन्द से निकले हुये परम आचार शास्त्र के क्रम से सदा संयत रहता हुआ-शुभोपयोग में प्रवर्तता है। व्यवहारिक धर्म ध्यान में परिणत रहता है, स्वाध्याय करता है, आहारादि की शुद्धि पूर्वक चर्या करता है। तीन संध्यायों के समय भगवान अहंत परमेश्वर की स्तुति बोलता है, नियम परायण रहता है, प्रतिक्रमण करता है, बाह्य तप में सतत् उत्साह परायण रहता है, आभ्यन्तर तपों में कुशल बुद्धि वाला है परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारण भूत स्वात्माश्रित आवश्यक कर्म निज शुद्धात्मानुभूति से रहित हैं, निश्चय धर्म ध्यान को नहीं जानता, पर द्रव्य में परिणत होने से उसे अन्य वश कहा जाता है। ऐसा अन्य वश श्रमण देव लोक आदि शुभोपयोग के फल स्वरूप प्राप्त कर राग रूपी अग्नि में तप्त रहता है।
कोई आसन्न भव्य जीव, सद्गुरू के प्रसाद से प्राप्त परम तत्व के श्रद्धान ज्ञान, अनुष्ठान स्वरूप शुद्ध निश्चय रत्नत्रय परिणत-निज शुद्धात्मा की साधना द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है। इसलिये पुण्य की कारण भूत बाह्य
व्यवहार की रूचि छोड़ो और निर्वाण की कारण निज शुद्धात्मा को भजो-जो सहज परमानन्द मयी परमात्मा है । सर्वथा निर्मल ज्ञान का आवास है, निरावरण स्वरूप है तथा नय, अनय के समूह से दूर है।
जो भव्य, औदायिकादि पर भावों के समुदाय को परित्याग कर निज कारण परमात्मा को,जो काया, इन्द्रिय और वाणी को अगोचर है, ममल स्वभाव वाला है, उसे ध्याता है, वह शुद्ध बोध स्वरूप सदा शिवमय मुक्ति को प्राप्त करता है।
इस प्रकार संसार दुःखनाशक-निजात्म नियत चारित्र हो तो यह चारित्र मुक्ति श्री का अतिशय सुख अतीन्द्रिय आनन्द देने वाला है।
आत्मज्ञानी, मुमुक्षु जीव-लौकिक भय को तथा घोर संसार की करने वाली प्रशस्त-अप्रशस्त राग की रचना को छोड़कर मुक्ति के लिए स्वयं अपने से अपने में ही अविचल स्थिति को प्राप्त करते हैं।
प्रश्न- क्या आत्मा अपने शुद्ध स्वभावी धर्म की इतनी महिमा है, कि उसमें बाह्य में कुछ नहीं करना पड़ता और यह कर्मादि संयोग अपने आप घट जाते हैं?
इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं
गाथा-१८ न्यानं गुनं माल सुनिर्मलेत्वं, संषेप गुथितं तुव गुन अनंतं । रत्नत्रयं लंकृत स स्वरूपं, तत्वार्थ सार्धं कथितं जिनेन्द्रं ॥
शब्दार्थ- (न्यानं गुनं) ज्ञान गुणों की (माल) माला (सुनिर्मलत्वं) अत्यन्त निर्मल, परम शुद्ध है (संषेप गुथितं) संक्षेप में गुंथन किया है अर्थात् वर्णन किया -कहा है (तुव) तुम्हारे (गुन अनंत) अनन्त गुण हैं (रत्नत्रयं लंकृत) रत्नत्रय अर्थात् परम सुख, परम शान्ति, परम आनन्द से अलंकृतपरिपूर्ण है (स स्वरूपं) अपना सत्स्वरूप, शुद्धात्म तत्व (तत्वार्थ साध) यही प्रयोजनीय तत्व है, इसी की साधना करो (कथितं जिनेन्द्र) यह श्री जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है।