Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 99
________________ १७५] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १८] [ १७६ अपने चिदानन्द चैतन्य स्वभाव में रहने से कर्म अपने आप विला जाते हैं। कम्म सहावं विपन, उत्पत्ति पिपिय दिस्टि सदभाव। चेयन रूप संजुरी,गलिय विलय ति कम्मबंधानं ॥ || कमलबतीसी॥ कर्मों का स्वभाव तो स्वयं क्षय होने का, नाशवान है, कर्मों का आश्रव बन्ध और क्षय अपनी दृष्टि के सद्भाव पर है, अगर चैतन्य की दृष्टि पर पर्याय पर है तो कर्मों का आश्रव बन्ध होता है और दृष्टि अपने ध्रुव स्वभाव पर है, तो कर्म क्षय होते हैं। सद्गुरू कहते हैं कि अपने चैतन्य स्वरूप में लीन हो जाओ तो सारे कर्म बंध गल जायेंगे, विला जायेंगे। अपने आत्म स्वभाव में रहने से ही सब कर्मादि संयोग अपने आप छटते हैं, जिसकी दृष्टि अपने परमात्म स्वरूप की ओर हो जाती है, उसे अपने आप पाप, विषय, कषाय आदि से विरक्ति हो जाती है और इससे ही यह सब संयोग और पूर्व कर्म बन्ध छूटने लगते हैं। बाहर में कुछ करना पड़ता नहीं है, व्यवहार में यह कहने में आता है कि इसने यह व्रत नियम, संयम लिया है, यह सब छोड़ दिया है, पर अन्तर में भेदज्ञान होने से सब अपने आप छूट जाता है। यह धर्म की महिमा है, यह अनन्त गुणमयी ज्ञान गुणमाला ही सर्वश्रेष्ठ परम इष्ट है,यह रत्नत्रयमयी अपना ही सत्स्वरूप है, इसकी साधना आराधना से ही अरिहन्त सिद्ध पद प्रगट होता है, जिसकी तीन लोक जय-जयकार मचाते हैं और सौ इन्द्र सेवा करते हैं। यह रत्नत्रय मयी ज्ञान गुण माला ही प्राप्त करने योग्य है। ऐसा जिनेन्द्र परमात्मा-भगवान महावीर ने अपने समवशरण में जगत के सब भव्य जीवों को संदेश दिया है। प्रश्न - यह एकान्त पक्ष तो जिनवाणी का आशय नहीं है, जिनेन्द्र परमात्मा मे भी कमों से मुक्त होने के लिए तपश्चरण आदिबाह्य आचरण बताये हैं। अगर व्यवहार रत्नत्रय को छोड़कर निश्चय-निश्चय ही को महत्व देंगे, तो स्वेच्छाचारिता ही बढ़ेगी, जो पतन का कारण है? समाधान - यहाँ व्यवहार रत्नत्रय के बाह्य आचरण का निषेध नहीं किया जा रहा-यहाँ मुक्ति का मूल आधार बताया जा रहा है कि बगैर सम्यग्दर्शन निज शुद्धात्मानुभूति किये मुक्ति होने वाली नहीं है। शुद्ध निश्चय सम्यग्दर्शन ही एक मात्र मुक्ति का कारण है। यदि सम्यग्दर्शन नहीं है और बाहर में कितने ही व्रत-तपश्चरणादि किये जायें वह सब पुण्य बन्ध और संसार के ही कारण हैं और सम्यग्दर्शन सहित व्रत तपश्चरण मुक्ति के कारण हैं। सम्यग्दर्शन होने पर ही जीव को संसार दु:ख रूप लगता है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि की बाह्य आचरण और संसार में सुख बुद्धि है, निज स्वरूप की अनभिज्ञता के कारण शरीरादि संयोग में एकत्वपना है, जब तक यह न छूटे तब तक मुक्ति किसकी और कैसे होगी? यहाँ धर्म का सत्स्वरूप अपना इष्ट निज शुद्धात्म तत्व प्रमुखता से बताया जा रहा है और यही जिनदर्शन-जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर की देशना है। द्रव्य की स्वतंत्रता, वस्तु का सत्स्वरूप और मुक्ति का स्वाश्रित मार्ग ही जिनदर्शन है। शरीर की खाल उतार कर नमक छिड़कने वाले पर भी क्रोध नहीं किया, ऐसे व्यवहार चारित्र इस जीव ने अनन्त बार पाले हैं परन्तु सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त नहीं किया, इसलिए संसार के भव भ्रमण जन्म-मरण से नहीं छटा. लाखों जीवों की हिंसा के पाप की अपेक्षा-मिथ्यादर्शन का पाप अनन्त गुना है। सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व वस्तु है और सम्यक्त्व सरल नहीं हैं, लाखोंकरोडों में किसी विरले जीव को ही वह होता है। सम्यक्त्वी जीव अपना निर्णय आप ही कर सकता है, इसका पर से कोई सम्बन्ध नहीं है। सम्यक्त्व रहित क्रियायें इकाई बिना शून्य के समान हैं, सम्यक्त्व का स्वरूप अत्यन्त ही सूक्ष्म है। जैसे जड़ हीरे का मूल्य हजारों रूपया होता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व हीरे का मूल्य-अमूल्य है। यह मिल गया तो कल्याण हो जायेगा। सम्यक्त्व रहित ज्ञान, बाहर का जानपना यह भी ज्ञान नहीं है, सम्यक्त्व सहित जानपना ही ज्ञान है। ग्यारह अंग कंठाग्र हों, परन्तु सम्यक्त्व न हो तो वह अज्ञान है। ___ अध्यात्म में सदा निश्चय नय ही मुख्य है, इसी के आश्रय से धर्म होता है, जिनवाणी में जहाँ विकारी पर्यायों का व्यवहार नय से कथन किया है, वहाँ भी निश्चय नय को ही मुख्य और व्यवहार नय को गौण करने का आशय है, क्योंकि पुरूषार्थ द्वारा अपने में शुद्ध पर्याय प्रगट करने अर्थात् विकारी पर्याय

Loading...

Page Navigation
1 ... 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133