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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.७]
वर्णादि व रागादि सर्वभाव इस आत्मा के स्वभाव से भिन्न हैं इसीलिए जो कोई निश्चय तत्व की दृष्टि से अपने भीतर देखता है उसे ये सब रागादि भाव नहीं दिखते, केवल एक परमात्मा ही दिखता है।
समयसार कलश-श्लोक २३९ में कहा है
आत्मा का स्वरूप सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र मयी एक रूप है यही एक मोक्ष का मार्ग है। मोक्ष के अर्थी को उचित है कि इसी एक स्वानुभव रूप मोक्षमार्ग का सेवन करे।
आत्मा ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश है (योगसार टीका ब्र. शीतलप्रसाद) सो सिउ संकलविण्हु सो, सो लदवि सोबुद्ध। सो जिण सिलभुसो, सो अणंत सो सिख ॥१०५ योगसार।।
आत्मा ही शिव है, शंकर है, विष्णु है, वही रूद्र है, वही बुद्ध है, वही जिन है, ईश्वर है, वही ब्रह्मा है, वही अनंत है, वही सिद्ध है।
समाधि शतक में कहा है (श्लोक ६)
परमात्मा कर्म मल रहित निर्मल है, एक है, केवल है, वही सिद्ध है, सर्व अन्य द्रव्यों की व अन्य आत्माओं की सत्ता से निराला विविक्त है, वही अनंत वीर्यवान होने से प्रभु है, वही सदा अविनाशी है, वही परमपद में रहने से परमेष्ठी है, वही परमात्मा है, वही सर्व इन्द्रियों से पूज्य ईश्वर है, वही रागादि विजयी जिन भगवान है।
परमात्मा देव अपने देह में भी है (योगसार दोहा १०६) एकहि लक्खण लक्खियउ जो पल णिक्कल देउ । देहह मज्झहिं सो वसई ताणु ण विज्जई भेउ ॥१०६योगसार।।
इस प्रकार ऊपर कहे हुए लक्षणों से लक्षित जो परमात्मा निरंजन देव है तथा जो अपने शरीर के भीतर बसने वाला आत्मा है. इन दोनों के स्वरूप में कोई भेद नहीं है। अपने शरीर में या प्राणी मात्र के शरीर में आत्मा द्रव्य रूप से शरीर भर में व्यापक तिष्ठा हुआ है, इस आत्म द्रव्य का लक्षण सिद्ध के समान है।
व्यवहार दृष्टि से या कर्म बंध की दृष्टि से सिद्धात्मा में और संसारी आत्मा में स्वरूप की प्रगटता व अप्रगटता के कारण भेद है।
समभाव ही मोक्ष का उपाय है समभाव के लिए साधक को व्यवहार दृष्टि से भेद जानते हुए भी निश्चय दृष्टि से अपने आत्म स्वरूप को व सर्व संसारी आत्माओं का स्वरूप समान देखना चाहिए तथा अपना आत्मा व सर्व संसारी आत्मायें, एक समान शुख निरंजन, निर्विकारी, पूर्ण ज्ञान, दर्शन, वीर्य,आनंदमय अमूर्तिक असंख्यात प्रदेशी ज्ञानाकार दीख पडेंगे तब सिद्धों में व संसारी आत्माओं में कोई भेद नहीं दिखाई देगा।
सम भाव लाने के लिए साधक को निश्चय नय से देखकर राग द्वेष को दूर कर देना चाहिए, केवल अपने ही आत्मा को शुद्ध देखना चाहिए उसे परमेश्वर मानना चाहिए।
स्वयं ही निरंजन हूँ परमात्मा हूँ ऐसा भाव लाकर उसी में उपयोग को स्थिर करना चाहिए इससे स्वानुभव हो जायेगा, मोक्षमार्ग प्रगट हो जायेगा वीतराग भाव ही परमानंद देने वाला है व कर्म निर्जरा का कारण है।
जो अपने शुद्ध स्वरूप के अनुभव से छूटकर पर भावों में अपने पने की बुद्धि करता है, उन्हें अच्छा बुरा मानता है, वह अवश्य कर्म बंध करता है परन्तु जो परपर्याय, रागादि भावों से हटकर, छूटकर अपने ही शुद्ध स्वरूप की साधना करता है, वही ज्ञानी कर्मो से मुक्त होता है।
अज्ञानी बहिरात्मा इस जगत के दिखने वाले भ्रम को सत्य मानता है और जगत के प्राणियों को स्त्री-पुरूष-नपंसक रूप में देखता है परन्तु ज्ञानी इस जगत का निश्चय से एक समान जीव अजीव का भेद जानकर निश्चय ज्ञाता है, उसे सर्व जीव एक समान स्वभाव से शुद्ध दिखते हैं तथा यह सब जगत जड़ अचेतन, पुद्गल परमाणुओं का पिंड दिखता है जो क्षण भंगुर नाशवान परिणमन शील असत्य है।
आत्मा का दर्शन ही सिद्ध होने का उपाय है (योगसार १०७ गा.) जे सिद्धाजे सिाहिहिंजे सिज्महि जिणु उत्तु । अप्पा दंसणि ते वि फुडु एहउ जाणि णिभंतु ॥ (योगसार १०७)
श्री जिनेन्द्र ने कहा है जो सिद्ध हो चुके हैं, जो सिद्ध होंगे, जो सिद्ध हो रहे हैं यह सब प्रगट पने आत्मा के दर्शन का ही महत्व है। इस बात को संदेह