Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ १०९] [मालारोहण जी गाथा क्रं.८ ] [११० है उस स्थिति में रहने की पात्रता और पुरूषार्थ काम करता है, वैसा ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। अब उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य- यह धर्म के दश लक्षण हैं अर्थात् अपना स्वभाव ऐसा है परन्तु अनादि अज्ञानता के कारण विपरीत हो रहा है, इन गुणों को अपने में प्रगट करो। (१) उत्तम क्षमा - इसकी पूर्णता तो निग्रंथ वीतरागी साधु पद में है। प्रारम्भिक भूमिका में क्रोध नहीं करना, लड़ाई-झगड़ा, बैर-विरोध में नहीं पड़ना, किसी को बुरा नहीं मानना, यह क्षमा धर्म है। (२) उत्तम मार्दव - अहंकार, मद-मान नहीं करना, किसी का बुरा नहीं मानना, अकड़-पकड़ नहीं होना, यह मार्दव धर्म है। (३) उत्तम आर्जव- मायाचारी, छल, कपट, बेईमानी नहीं करना, किसी का बुरा नहीं सोचना, सरल, सहज, शान्त सम भाव में रहना आर्जव धर्म है। (४) उत्तम सत्य - झूठ-अनैतिकता, गलत काम नहीं करना । अन्याय, अनीति, बेईमानी नहीं करना, किसी से बुरे कटुक, कठोर शब्द नहीं बोलना, हमेशा अपने सत्स्वरूप का स्मरण ध्यान रखना, यह सत्य धर्म है। (५) उत्तम शौच - "लोभ पाप का बाप बरवाना", लोभ नहीं करना, किसी का बुरा अहित नहीं करना, तृष्णा-चाह का घट जाना,शुचिता, सरलता आ जाना, यह शौच धर्म है। (६) उत्तम संयम - पाँच इन्द्रिय और मन का वश में होना, छह काय के प्राणियों की रक्षा करना, किसी की बुराई नहीं देखना, विवेक पूर्वक आचरण ही संयम धर्म है। (७) उत्तम तप - व्रत, उपवास आदि करना, किसी की बुराई न करना, न सुनना, इच्छाओं का निरोध कर अपने आत्म स्वभाव में रहना, तप धर्म है। (८) उत्तम त्याग - चार प्रकार का दान देना-(आहारदान, औषधिदान, ज्ञानदान, अभयदान) किसी से राग-द्वेष, बैर-विरोध न होना, अपनी आवश्यकताओं को कम करना, परिग्रह को छोड़ना, त्याग धर्म है। (९) उत्तम आकिंचन्य- समस्त परिग्रह, मूर्छा भाव का छूटना, निस्पृह, निरहंकारी होना, मेरा कुछ भी नहीं है, कोई भी नहीं है, मैं एक अखंड अभेद आत्मा हूँ ऐसा बोध जाग्रत रहना, आकिंचन्य धर्म है। (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य-विकारी भावों को छोड़कर (शरीरादि का राग तोड़कर) माया अब्रह्म के अभाव रूप अपने ब्रह्मस्वरूप में स्थित रहना, ब्रह्मचर्य धर्म है। इस प्रकार चार कषाय, पांच-पाप, पांचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग कर मन की चंचलता का निषेध कर-शुभाचरण करते हुये, अपने स्वरूप में स्थित ज्ञान भाव में ज्ञायक रहने पर पूर्व कर्म बन्धोदय निर्जरित क्षय होते हैं। निज आत्म गुणों का विकास होता है। यही गुण माला को गूंथने प्रगट करने का उपाय है इसी से निग्रंथ वीतरागता साधु पद प्रगट होता है, जो गुरू का स्वरूप है तथा अपने शुद्ध ममल स्वभाव में लीनता रूप पुरूषार्थ होने पर ४८ मिनिट में घातिया कर्मों का क्षय तथा अनन्त चतुष्टय व केवलज्ञान प्रगट होता है जो देवाधिदेव परमात्म पद है। प्रश्न -"संमिक्त शुद्धं हृदयं ममस्तं," शुद्ध सम्यक्त से मेरा हृदय परिपूर्ण है, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, ऐसा कहना तो गलत है। यह तो अहंकार का पोषक है तथा मैं सम्यग्दृष्टि हूँ ऐसा मानने में स्वच्छन्दता का भय है, ऐसे में क्या उपाय है? समाधान - हम सम्यग्दृष्टि हैं, हमें सम्यग्दर्शन हो गया, यह कहने की तो यहाँ बात ही नहीं है, पर हमें सम्यग्दर्शन हो गया, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ इसे न मानें तो गलत हो जायेगा क्योंकि यहाँ तो अनुभूति मय ज्ञान सहित हृदय से स्वीकारता की बात है। सम्यग्दर्शन का पर से कोई संबन्ध ही नहीं है पर अगर अपने को भी शंका, संशय, भ्रम रहेगा-तो सम्यग्दर्शन के अभाव रूप मुक्ति का पुरूषार्थ ही नहीं हो सकता।

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133