Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 75
________________ १२७] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १०] [ १२८ जानता है, यहां तो कहते हैं कि द्वादशांग का सार, सत्ताईस तत्वों का मर्म यह है कि आत्मा को परमात्मा समान दृष्टि में लेना और इसका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान तथा सब तत्वों का यथार्थ ज्ञान ही ज्ञान की शुद्धि है, जिसके होने पर चारित्र स्वयमेव चलता है, ज्ञान स्वभावी आत्मा का निर्णय दृढ़ करने में सहाय भूत सत्ताईस तत्वों का ज्ञान है। द्रव्यों का स्वयं सिद्ध सतपना और स्वतंत्रता, द्रव्य, गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय, धौव्य, नवतत्व का सच्चा स्वरूप जीव और शरीर की बिल्कुल भिन्न-भिन्न क्रियायें, पुण्य और धर्म के लक्षण भेद, निश्चय, व्यवहार इत्यादि अनेक विषयों के सच्चे बोध का अभ्यास करना चाहिए। प्रश्न- एक अपना शुखात्म स्वरूप जानना ही कार्यकारी प्रयोजन भूत है फिर इन सबको जानने की क्या आवश्यकता है? समाधान - प्रयोजन भूत इष्ट हितकारी तो अपना शुद्धात्म तत्व ही है, उस एक को ही साधना है,पर जो अन्य साथ में लगे हैं, इनका समाधान, सफाई न होवे, तब तक वह एक सधता नहीं है, जैसे जो कर्मोदय जन्य भावविभाव चलते हैं, संकल्प-विकल्प होते हैं उन्हें देखकर भयभीत क्यों होते हो? कोई क्रिया कर्म होने पर घबराहट क्यों होती है, अच्छा बुरा क्यों लगता है ? इसलिए कि इनके यथार्थ स्वरूप को नहीं जाना, वस्तु स्वरूप जान लेने पर फिर भ्रम और भयभीत पना नहीं होता। प्रश्न - अगर कोई इतना पढ़ा-लिखा न हो तथा तत्वादि के स्वरूप को भी न जानता हो, तो क्या वह सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञानी नहीं हो सकता? समाधान - ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है, सम्यग्दर्शन तो पशु, नारकी, देव,मनुष्य संज्ञी पंचेन्द्रिय को कभी भी किसी को भी हो सकता है। जीव की पात्रता पके, पुरूषार्थ काम करे तो अड़तालीस मिनिट में केवलज्ञान, मोक्ष भी हो सकता है और हुआ है। शिवभूति मुनि, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, यह तो अपेक्षा से समझने की बात है। लेडी पीपल का दाना आकार में छोटा और स्वाद में अल्प चरपराहट वाला होने पर भी उसमें चौसठ पुटी चरपराहट की शक्ति सदा परिपूर्ण है। इस दृष्टांत से आत्मा भी आकार में शरीर प्रमाण एवं भाव में अल्प होने पर भी उसमें परिपूर्ण सर्वज्ञ स्वभाव आनंद स्वभाव भरा है। लेडी पीपल को चौसठ पहर तक घोंटने से उसकी पर्याय में जिस प्रकार पूर्ण चरपराहट होती है उसी प्रकार रूचि को अन्तरोन्मुख करके स्वरूप का मंथन करते करते आत्मा की पर्याय में पूर्ण स्वरूप प्रगट हो जाता है। सत्समागम से आत्मा की पहिचान करके आत्मानुभवन करो, आत्मानुभवन का ऐसा महात्म है कि कितनी ही अनुकूलता-प्रतिकूलता आने पर भी जीव की ज्ञान धारा विचलित नहीं होती। तीन काल और तीन लोक की प्रतिकूलता के ढ़ेर एक साथ सामने आकर खड़े हो जायें तथापि मात्र ज्ञाता रूप रहकर सब सहन करने की शक्ति आत्मा के ज्ञायक स्वभाव की एक समय की पर्याय में विद्यमान है। शरीरादि तथा रागादि से भिन्न जिसने आत्मा को जाना है, उसे कोई भी क्रिया, भाव, विकल्प, पर्याय, किंचित भी असर नहीं कर सकते, वह अपने स्वरूप से जरा भी विचलित नहीं होता और स्वरूप स्थिरता पूर्वक दो घड़ी स्वरूप में लीनता होने पर पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होता है, जीवन मुक्त दशा, मुक्ति होती है। जैसे किसी ने पाक शास्त्र (भोजन बनाने की कला) का अध्ययन किया हो या न किया हो, परन्तु यदि वह भोजन बनाना जानता है तो चतुर है। वैसे ही किसी ने शास्त्राभ्यास किया हो या न किया हो, पढ़ा-लिखा हो या न हो, पर यदि उसे अपने चैतन्य स्वरूप का भाव भासन है तो वह सम्यग्दृष्टि है। पुण्य-पाप दुःख दायक हैं, अधर्म हैं तथा शरीर कर्म आदि अजीव हैं, यह रागादि परिणाम दु:खदायक हैं, मैं शुद्ध चैतन्य ज्ञायक हैं जिसे इस प्रकार भाव भासन हो, वही सम्यग्दृष्टि है, भले ही वह पढ़ा-लिखा न हो। सम्यग्दृष्टि को ज्ञान वैराग्य की ऐसी शक्ति प्रगट होती है कि गृहस्थाश्रम में होने पर भी सभी कार्यों में स्थित रहने पर भी निर्लेप रहते हैं। ज्ञानधारा और कर्मधारा दोनों भिन्न परिणमती हैं। ज्ञानी को दृष्टि अपेक्षा से चैतन्य स्वरूप एवं शरीरादि की अत्यन्त भिन्नता भासती है।

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