Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 81
________________ १३९ ] इन पांच महाव्रत और पांच समिति का पालन होता है। तीन गुप्ति- मन गुप्ति, वचन गुप्ति, काय गुप्ति । १. मन गुप्ति- मन की रागादि से निवृत्ति को मनोगुप्ति कहते हैं, इससे सम्यक् ध्यान आत्म स्वरूप में तल्लीनता होती है। [मालारोहण जी - २. वचन गुप्ति - वचनरूप प्रवृत्ति का अभाव, पूर्ण शांत मौन दशा वचन गुप्ति है, इससे स्वरूप की स्थिरता होती है। ३. कायगुप्ति- शरीर से ममत्व का त्याग, शारीरिक क्रिया की पूर्ण निवृत्ति काय गुप्ति है, इससे कायोत्सर्ग रूप आत्म ध्यान की निश्चलता होती है । ऐसे साधु पद के होने पर दस धर्म और सोलह कारण भावनायें प्रगट होती हैं। दस धर्म - उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन, उत्तम ब्रह्मचर्य । १. उत्तम क्षमा- उत्कृष्ट क्षमा, क्रोध कषाय का अभाव, शांत सौम्य में रहना उत्तम क्षमा है। भाव २. उत्तम मार्दव- उत्कृष्ट सरलता, मान कषाय का अभाव, मान अपमान में समदृष्टि विनीत रहना उत्तम मार्दव है । ३. उत्तम आर्जव - उत्कृष्ट सहजता, माया कषाय का अभाव, माया से हटकर मुक्ति श्री में रमण करना उत्तम आर्जव है। ४. उत्तम सत्य - वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय होना, अपने सत्य स्वरूप में निर्विकारी न्यारे ज्ञायक रहना, उत्तम सत्य है। ५. उत्तम शौच - उत्कृष्ट शुचिता, पवित्रता, लोभ कषाय का अभाव, किसी प्रकार की कामना, वासना का न रहना, उत्तम शौच है । ६. उत्तम संयम- हमेशा अपने में स्वस्थ्य सावधान होश में रहना, अपनी सुरत रखना उत्तम संयम है। ७. उत्तम तप- अपने आत्म स्वभाव में लीन रहना, बारह प्रकार के तपों का पालन करते हुए, उपसर्ग परीषहों को जीतना, अपने में निर्विकल्प [ १४० गाथा क्रं. ११] रहना उत्तम तप है। ८. उत्तम त्याग - वीतराग भाव सहित, निर्विकल्प, निजानंद में रहना, उत्तम त्याग है। ९. उत्तम आकिंचन्य- इस जगत में परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है, ज्ञेय मात्र से भिन्न मैं ज्ञान स्वभावी ध्रुव तत्व शुद्धात्मा हूं, निर्ममत्व होना, उत्तम आकिंचन्य है । १०. उत्तम ब्रह्मचर्य - समस्त अब्रह्म से विरत होकर अपने ब्रह्म स्वरूप में रमण कर लीन रहना, उत्तम ब्रह्मचर्य है। ऐसे अपने स्वाभाविक गुणों का प्रगट होना ही साधु की श्रेष्ठता है । इसी क्रम में सोलहकारण भावनायें होती हैं जो तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण हैं, सामान्यतः मुक्ति मार्ग पर तीव्र गति से बढ़ने में सहकारी है। सोलह कारण भावना निम्न प्रकार हैं १. दर्शन विशुद्धि भावना सम्यग्दर्शन शुद्ध रहे, पच्चीस दोष में से कोई भी दोष न लगे, निरंतर ही स्वरूपानुभूति होती रहे, तथा जगत के समस्त जीव अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान सम्यग्दर्शन कर मुक्ति के मार्ग पर चलें, आत्मा से परमात्मा बनें, ऐसी भावना होना । २. विनय सम्पन्न भावना- रत्नत्रय धर्म तथा उनके धारकों के प्रति विनय होना । ३. शीलव्रतेष्वनतीचार भावना- शील स्वभाव व व्रतों के पालने में कोई दोष न लगे । ४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना निरंतर आत्म चिंतन व स्वाध्याय में उपयोग लगाना । ५. संवेग भावना - संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य व धर्म में अनुराग बढ़ता रहे। ६. शक्तितः त्याग भावना शक्ति अनुसार त्याग मार्ग पर चलना, तथा दान देना । ७. शक्तिस्तप भावना- शक्ति अनुसार अपने स्वरूप में रहना, बारह तपों का पालन करना ।

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