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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.१३]
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सातवें, गुणस्थान का झूला झूलते हैं, केवलज्ञान न हो तब तक ध्यान की शुद्धि बढ़ाते ही जाते हैं, यह मुनि की अन्त: साधना है। जगत के जीव मुनि की अन्तरंग साधना नहीं देखते। साधना कहीं बाहर की देखने योग्य नहीं है, अन्तर की सही हो, तो बाहर तो अपने आप अतिशय महिमा होती है।
मुनिराज को शुद्धात्म तत्व के उग्र अवलम्बन द्वारा आत्मा में संयम प्रगट हुआ है। सारा ब्रह्माण्ड पलट जाये, तथापि मुनिराज की यह दृढ़ संयम परिणति नहीं पलट सकती। बाहर से देखने पर तो मुनिराज आत्म साधना के हेतु वन में अकेले बसते हैं परन्तु अन्तर में देखें तो अनन्त गुणों से भरपूर धुवधाम में उनका निवास है। बाहर से देखने पर भले ही वे क्षुधावन्त हों, तृषावन्त हों, उपवासी हों परन्तु अन्तर में देखा जाये तो वे आत्मा के मधुर अमृत रस अतीन्द्रिय आनन्द का आस्वादन कर रहे हैं। उपसर्ग का प्रसंग आवे तब भी मुनिराज को ऐसा लगता है कि अपनी स्वरूप की स्थिरता की परीक्षा का अवसर मिला है, इसलिए उपसर्ग मेरा मित्र है । मुनिराज के हृदय में एक आत्मा ही विराजता है, उनका सर्व प्रवर्तन आत्मा मय ही है, आत्मा के आश्रय से बड़ी निर्भयता प्रगट हुई है। घोर जंगल हो, घनी झाड़ी हो, सिंह, व्याघ्र दहाड़ते हों, मेघाच्छन्न डरावनी रात हो, चारों ओर अन्धकार व्याप्त हो, वहाँ गिरि गुफा में मुनिराज बस अकेले चैतन्य स्वरूप में ही मस्त होकर निवास करते हैं।
मुनिराज को एकदम स्वरूप रमणता जाग्रत रहती है। स्वरूप कैसा है? ज्ञान, आनन्दादि गुणों से भरपूर है, पर्याय में समता भाव प्रगट है, शत्रुमित्र के विकल्प से रहित है, निर्मानता है। चाहे जैसे संयोग हों, अनुकूलता में आकर्षित नहीं होते, प्रतिकूलता में खेद नहीं करते। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं त्यों-त्यों समदृष्टि सम भाव विशेष प्रगट होता जाता है।
मुनि धर्म शुद्धोपयोग रूप है, पुण्य-पाप, शुभाशुभ भाव धर्म नहीं है परन्तु शुद्धोपयोग ही धर्म है।
ज्ञानी अपने अनुभव से मार्ग बनाता आगे बढ़ता है, आगम और अन्य जीवों की स्थिति, देश, काल परिस्थिति, के अनुसार बाह्य आचरण परिवर्तनीय है। निश्चय साधना सबकी एक सी एक ही होती है क्योंकि -
एक होय त्रिकालमां परमार्थनो पंथ ।
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ इसे सभी साधक स्वीकार करते हैं, इसकी साधना में बाह्य आचरण कैसा होना चाहिए, कैसा होता है? यह ज्ञानी साधक की पात्रता और परिस्थिति पर निर्भर है। आगम और अनुभव से स्वयं निर्णय कर अपना मार्ग बनाना ज्ञानी का काम है।
यहाँ प्रश्न आता है कि इस प्रकार बाह्य आचरण में मतभेद होने से विवाद और एक दूसरे के प्रति राग-द्वेष पैदा होते हैं, इसका क्या समाधान होगा?
समाधान- इसका कोई समाधान नहीं है क्योंकि व्यवहार आचरण किसी का एक सा हो नहीं सकता। सब जीवों के कर्मोदय, पात्रता, परिस्थिति, संस्कार भिन्न - भिन्न होते हैं। एक घर में दश जीव हैं. तो सब के बाह्य आचरण, खान-पान, रहन-सहन, स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं, दो भाई और बाप-बेटे का व्यवहार आचरण एक-सा नहीं होता। अन्तरंग साधना में अनन्त ज्ञानियों का एक मत होता है और एक अज्ञानी के अनन्त मत होते हैं। व्यवहार आचरण खान-पान, रहन-सहन को लेकर ही यह धर्म के नाम पर इतने सम्प्रदाय और जातियाँ बनी हैं, जो धर्म के मल को भूलकर बाहरी क्रिया कांड, पूजा-पाठ, खान-पान को लेकर आपस में लड़ते बैर विरोध में पड़े हैं, जिससे स्वयं का भी अहित हो रहा है और दूसरों का भी हो रहा है। पर जब तक सम्यग्ज्ञान न होवे वह भी क्या करें? अज्ञान की महिमा भी अगम है, अज्ञान भी जो न कराये थोड़ा है, इसलिए इस विवाद में न पड़कर अपने को स्वयं को देखना है, स्वयं का निर्णय करना है और स्वयं केअनुभव के आधार पर मुक्ति मार्ग पर चलना है, यहाँ संसार की अपेक्षा नहीं है। सद्गुरू श्री जिन तारण स्वामी कहते हैं कि संसार तो आवहि जावहि,हम तो संसार छुडावहि। यह मुक्ति का मार्ग तो स्वतंत्र व्यक्तिगत एकला चलने वाला है, क्योंकि धर्म-कर्म में कोई किसी का साथी नहीं है। जो जैसा करेगा, उसका फल स्वयं उसे ही भोगना पड़ेगा। अपनी ओर देखें,अपना निर्णय करें इसी में अपना भला है।