Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 91
________________ १५९ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १४] [ १६० (५) विद्या मद (६) धन मद (७) ऋद्धि मद (८) पद मद से रहित होते हैं, वे भेदज्ञानी मिथ्या माया (छल कपट) से भरी तीन मूढ़ता - (१) देव मूढता (२) लोक मूढता (३) पाखंडी मूढ़ता को नहीं देखते, तथा छह अनायतन(१) कुदेव (२) कुगुरू (३) कुधर्म और तीन इनके मानने वालों की मान्यता, प्रभावना, स्तुति, वंदना नहीं करते। इस प्रकार आठ दोष, आठ मद, तीन मूढता, छह अनायतन यह पच्चीस दोषों को त्याग कर , शुद्ध सम्यक्त्व के धारी, ज्ञानी, समस्त कर्म मलों से मुक्त हो जाते हैं (इन पच्चीस दोषों का विस्तृत विवेचन श्री तारण-तरण श्रावकाचार टीका में देखें)। ज्ञानी किसे माने, ज्ञानी कैसा होता है? इससे अपने आपको पहिचान लें। ज्ञान होने के बाद ज्ञानी राग द्वेष आदि को अपना नहीं मानता, ज्ञानी अपने ज्ञान स्वभाव को जानता है कि यह ज्ञेय भाव और भावक भावों से भिन्न यह विचार मत का ग्रंथ है, यहाँ भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन सहित वस्तु स्वरूप का निर्णय करना है। ज्ञानी की स्थिति पर श्रावकपना, साधुपना, स्वयमेव आता है, इसलिए उनका संक्षेप में वर्णन किया है, विशेषता के लिए अन्य आगम ग्रंथ देखें। जिसे आत्मा का हित करना हो, उसे प्रथम आगम का अभ्यास करके आत्म स्वभाव का सच्चा निर्णय करना चाहिए, सच्चे गुरू कैसे होते हैं? सच्चे शास्त्र कैसे होते हैं? उसका निर्णय करना चाहिए. जैसे संसार में व्यवहार में कोई वस्तु खरीदते हैं, लेते हैं तो चार जगह तपास कर उस वस्तु को देखभाल कर परीक्षा करके लेते हैं। पर धर्म के सम्बन्ध विचार नहीं करते, जिससे अपने जीवन का सम्बन्ध है, वर्तमान का, भविष्य का सम्बन्ध है। उसका भी अपनी बुद्धि पूर्वक निर्णय करना आवश्यक है। तभी इस अज्ञान मिथ्यात्व से छूट कर अपना भला कर सकते हैं। प्रश्न- सबसे कठिन समस्या तो यही है किज्ञानी किसे माने, और ज्ञानी कैसा होता है,यह कैसे जानें? इसके समाधान में सद्गुरू आगे चौदहवीं गाथा कहते हैं गाथा -१४ संकाय दोषं मद मान मुक्तं, मूढं त्रयं मिथ्या माया न दिस्टं । अनाय षट् कर्म मल पंचवीसं, तिक्तस्य न्यानी मल कर्म मुक्तं ॥ __शब्दार्थ- (संकाय दोषं) आठ शंकादि दोष (मद मान मुक्तं) आठ मद से मुक्त (मूढं त्रयं) तीन मूढता (मिथ्या माया )छल कपट (न दिस्ट) नहीं देखते (अनाय षट् कर्म) छह अनायतन (मल पंचवीसं) यह पच्चीस मल (तिक्तस्य ) छोड़कर (न्यानी) ज्ञानी (मल कर्म मुक्तं )सारे कर्म मलों से मुक्त हो जाते हैं। विशेषार्थ- सम्यग्दृष्टि भव्य जीव शंकादि आठ दोष - (१) शंका (२) कांक्षा (३) विचिकित्सा (४) मूढदृष्टि (५) अनुपगूहन (६) अस्थितिकरण (७) अवात्सल्य (८) अप्रभावना। आठ मद- (१) जाति मद (२) कुल मद (३) रूप मद (४) बल मद शेय भाव- अन्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल यह छहों द्रव्य ज्ञेय भाव हैं। भावक भाव- मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, द्रव्य कर्म. नो कर्म, मन, वचन, काय, कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन । इनके सम्बंध से होने वाले भाव, भावक भाव हैं। इनसे भिन्न मैं ज्ञान मात्र चैतन्य ज्योति स्वरूप शुद्धात्मा हूँ, ऐसा ज्ञान का स्व पर प्रकाशक स्वभाव है, ज्ञानी अपने श्रद्धा आदि अनन्त गुणों को जानता है और राग द्वेष मेरे में नहीं हैं, द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म से भिन्न अपने सत्स्वरूप को जानता है। रागादि विकल्प होने पर भी, ज्ञान दशा और आनन्द की दशा वर्तती रहती है, उसे भेद नहीं करना पड़ता है, स्वभाव संमुख हुआ है और रागादि से विलग हआ है, उसे स्वभाव की ओर का पुरूषार्थ चलता रहता है। जो आत्मा को अबद्ध, अस्पर्श,अनन्य,नियत, अविशेष और असंयुक्त देखता है,जानता है, वह समस्त जिनशासन को जानता है। जो ज्ञानी रागादि को उपयोग भूमि में न ले जावे, ज्ञान स्वरूप रहे, वह कर्म से नहीं बंधता, राग में राग होने से बंध होता है। निज आत्मा को ज्ञायक स्वभाव रूप स्वीकार किये बिना कितने ही विकल्प किये जायें, उनसे मुक्ति नहीं होती।

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