Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

View full book text
Previous | Next

Page 84
________________ १४५] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १२] [ १४६ चारित्र निज शुद्धात्मानुभूति अल्प समय की होती है। अव्रत, गृहस्थ दशा में 'रहते हुये, आत्मा का निरन्तर स्मरण नहीं रहता, अनुभूति जो अतीन्द्रिय आनन्द की स्थिति है, वह तो विशेष होती ही नहीं है इसलिए अब पात्रतानुसार अणुव्रत का पालन करो, ग्यारह प्रतिमाओं की साधना करो. इससे पात्रता बढ़ेगी, पाँचवां गुणस्थान होगा, जिससे विशेष आत्मानुभूति बढ़ेगी। जिसे स्वभाव की महिमा जागी है. अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन हुआ है ऐसे सच्चे आत्मार्थी को विशेष कषायों की महिमा टूटकर उनकी तुच्छता लगती है। कोई भी कार्य करते हुये उसे निरन्तर शुद्ध स्वभाव की ओर लक्ष्य बना ही रहता है। गृहस्थाश्रम में स्थित ज्ञानी को शुभाशुभ भाव से भिन्न ज्ञायक का अवलम्बन करने वाली ज्ञान धारा निरन्तर वर्तती रहती है परन्तु पुरुषार्थ की निर्बलता के कारण अस्थिर रूप विभाव परिणति बनी हुई है इसलिये उसको ग्रहस्थाश्रम सम्बंधी शुभाशुभ परिणाम होते हैं, स्वरूप में स्थिर नहीं रहा जाता, इसलिये वह विविध शुभ भावों से युक्त होता है। देव,गुरू की भक्ति, उनके गुणों का स्मरण, शास्त्र स्वाध्याय, सामायिक, ध्यान,संयम, तप, दान, अणुव्रत आदि पालन करने के शुभ भाव होते हैं। जिसे भव भ्रमण से सचमुच छूटना हो उसे अपने को पर द्रव्य से भिन्न जानकर अपने धुव ज्ञायक स्वभाव की महिमा लाकर, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र प्रगट करने का प्रयास करना चाहिये, यदि तत्व का श्रद्धान ध्रुव ज्ञायक स्वभाव का आश्रय न हो तो साधना का बल किसके आश्रय से प्रगट करेगा? साधक जीव की दृष्टि निरन्तर शुद्धात्म तत्व पर होती है तथापि साधक जानता सबको है, वह शुद्ध-अशुद्ध पर्यायों को जानता है उसे स्वभाव, विभाव पने का, सुख-दुःख रूप वेदन का, कर्मों के साधक-बाधकपने का विवेक वर्तता है। साधक दशा में साधक के योग्य अनेक परिणाम वर्तते रहते हैं, पुरूषार्थ रूप क्रिया अपनी पर्याय में होती है और साधक उसे जानता है। ज्ञानी का परिणमन विभाव से विमुख होकर स्वरूप की ओर ढलता है, ज्ञानी निज स्वभाव में परिपूर्ण रूप से रहने के लिये तरसता है। पूर्ण रूप से अभेद ऐसे पूर्ण आत्म द्रव्य पर दृष्टि करने से उसी के आलम्बन से पूर्णता प्रगट होती है। लोगों का भय त्याग कर, शिथिलता छोड़कर स्वयं दृढ पुरूषार्थ करना चाहिये। लोग क्या कहेंगे? ऐसा देखने से अपने ध्रुवधाम में नहीं पहुँचा जा सकता। साधक को एक शुद्धात्मा का ही सम्बन्ध होता है। निर्भय रूप से उग्र पुरूषार्थ करना चाहिये, जिससे अपनी स्वरूप की स्थिति बने, यही गुण प्रगट करने का मार्ग है। लौकिक संग गृहस्थ दशा पुरूषार्थ मन्द होने का कारण होता है, महापुरूष विशेष ज्ञानी महात्माओं का संग, चैतन्य तत्व को निहारने की परिणति में विशेष वृद्धि का कारण होता है, इसलिये अव्रत दशा में रहते हुये, विशेष आत्मानुभूति न होने से आत्मा तड़फता रहता है । जब व्रत, नियम, संयम होता है, तब विशेष आत्मबल बढ़ता है। जिससे आत्मगुण प्रगट होते हैं, इसके लिए ग्यारह प्रतिमा रूप साधना का मार्ग प्रारम्भ होता है, जो निम्न प्रकार है संयम अंश जगो जहाँ, भोग अरूचि परिणाम। उदय प्रतिज्ञा को भयो, प्रतिमा ताको नाम ॥ जब संयम धारण करने का भाव उत्पन्न हो, विषय भोगों से अन्तरंग में उदासीनता पैदा हो, तब जो त्याग की प्रतिज्ञा की जाये, वह प्रतिज्ञा प्रतिमा कहलाती है। जो धर्मात्मा पाक्षिक श्रावक की क्रियाओं का साधन करके शास्त्रों के अध्ययन द्वारा तत्वों का विशेष विवेचन करता हुआ, पंचाणुव्रतों का आरम्भ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र और उत्तम क्षमादि धर्म पालन करने की निष्ठा युक्त पंचम गुणस्थानवर्ती हो वह नैष्ठिक श्रावक साधक कहलाता है, जो आगे चलकर महाव्रत रूप मुनि व्रत, साधु पद धारण करता है। इन प्रतिमाओं का यथार्थ स्वरूप श्रावकाचार ग्रंथ से देखना, यहाँ संक्षेप में वर्णन किया जाता है (१) दर्शन प्रतिमा- धर्म या सम्यक्त्व की प्रतिमा (मर्ति) जिसने सम्यग्दर्शन शुद्ध कर लिया है जो संसार, शरीर, भोगों से चित्त में विरक्त है, सप्त व्यसन का त्यागी, अष्ट मूलगुणों का पालन करता है, वह दर्शन प्रतिमा धारी है। दर्शन प्रतिमा के पालन करने से मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्य का सर्वथा अभाव होकर धर्म की निकटता होती है तथा व्रत धारण करने की शक्ति और

Loading...

Page Navigation
1 ... 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133