Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 83
________________ १४३] [मालारोहण जी गाथा क्रं. १२] [ १४४ इसके समाधान में सद्गुरू आगे चारित्र की शुद्वि की अपेक्षा गाथा कहते परम सुख, सम्यग्ज्ञान से परम शांति, और सम्यग्चारित्र से परमानंद स्वरूप परमात्म पद होता है। साधु पद से रत्नत्रय की ही साधना की जाती है. जिससे उपाध्याय, आचार्य पद होते हुए, अरिहन्त पद प्रगट होता है, जो पूर्ण वीतरागी, केवलज्ञान मयी सर्वज्ञ परमात्म पद है। अन्तिम समय में शरीरादि कर्मों का पूर्ण अभाव होने पर सिद्ध पद होता है, जोशाश्वत धुव पद है, जिससे सम्यक्त्व आदि गुण प्रगट होते हैं। सिद्ध के आठ गुण - १. शुद्ध सम्यक्त्व २. अनन्त ज्ञान ३. अनन्त दर्शन ४. अनन्त वीर्य ५. सूक्ष्मत्व ६. अगुरूलघुत्व ७. अवगाहनत्व ८. अव्याबाधत्व। १. शुख सम्यक्त्व- मोहनीय कर्म के अभाव से यथाख्यात चारित्र प्रगट होता है। २. अनन्त ज्ञान- ज्ञानावरणीय कर्म के अभाव से केवलज्ञान प्रगट होता है। ३.अनन्त दर्शन-दर्शनावरणीय कर्म के अभाव से केवलदर्शन प्रगट होता है। ४. अनन्त वीर्य - अन्तराय कर्म के अभाव से पूर्ण पुरूषार्थ प्रगट होता है। ५. सूक्ष्मत्व - नाम कर्म के अभाव से शरीरादि का संयोग नहीं रहता अशरीरपना प्रगट होता है। ६.अगुललघुत्व- गोत्र कर्म के अभाव से, अभेद दशा प्रगट होती है। ७. अवगाहनत्व- आयु कर्म के अभाव से अनादि निधनपना प्रगट होता है। ८. अव्याबाधत्व- वेदनीय कर्म के अभाव से पूर्ण परमानंद होता है। इस प्रकार ७५ गुणों के प्रगट होने से आत्मा सिद्ध परमात्मा, सर्वगुण सम्पन्न पूर्ण शुद्ध परमानंदमयी परमात्मा होता है. इसी को ईश्वर, भगवान, परब्रह्म, परमेश्वर, निरंजन, ॐकार, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, परमात्मा, जिन आदि नामों से भव्य जीव ध्याते हैं। प्रश्न-इन गुणों के प्रगट करने का मार्ग क्या है? गाथा-१३ पडिमाय ग्यारा तत्वानि पेष, व्रतानि सीलं तप दान चेत्वं । संमिक्त सुद्धं न्यानं चरित्रं, स दर्सनं सुद्ध मलं विमुक्तं ॥ शब्दार्थ-(पडिमाय ग्यारा) ग्यारह प्रतिमा (तत्वानि) तत्वों का स्वरूप (पेष) जानकर (व्रतानि) पांच अणुव्रत (सीलं) सप्त शील (चार शिक्षाव्रत तीन गुण व्रत)(तपदान) तप और दान (चेत्वं) अपना चित्त लगाओ,(संमिक्त सुद्ध) शुद्ध सम्यक्त सहित (न्यानं) ज्ञान से (चरित्र)चारित्र की शुद्धि करो (स दर्सनं) इससे दिखाई देगा (सुद्ध) परिपूर्ण शुद्ध, शुद्धात्मतत्व, जो (मलं विमुक्तं) सारे कर्म मलों से रहित है। विशेषार्थ- हे भव्य ! आनन्द में रहने के लिए तत्वों को भलीभांति जान कर ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करो, पापों का एक देश त्याग कर पांच अणुव्रत एवं सप्तशील (चार शिक्षाव्रत, तीन गुणवतों) का पालन करो, तप दान में अपना चित्त लगाओ और शुद्ध सम्यग्दर्शन, ज्ञान,चारित्र सहित निर्मल, निर्विकारी समस्त कर्ममलों से रहित निज शुद्धात्म स्वरूप को देखो, भेद विज्ञान पूर्वक व्रतादि के पालन रूप आचरण बनाने से शुद्ध चैतन्य स्वरूप अनुभव में प्रत्यक्ष दिखाई देगा। इन गुणों के प्रगट करने का मार्ग क्या है ? इसके समाधान में सदगुरू कहते हैं, अब चारित्र की शुद्धि करो। सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दिढ़ चारित लीजे। एक देश अल सकलदेश तसुभेद कहीजे ॥ भेद विज्ञान पूर्वक जब सम्यग्दर्शन और ज्ञान की शुद्धि कर ली अर्थात् यह हृदय से स्वीकार कर लिया कि मुझे निज शुद्धात्मानुभूति हो गई और वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय हो गया तो अब चारित्र की शुद्धि करो। इसका अपनी शक्ति और पात्रतानुसार पालन करो क्योंकि इसी से पात्रता बढ़ती है, अभी सम्यग्दर्शन होने से चौथा गुणस्थान ही हआ है. जहाँ स्वरूपाचरण

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