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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. १०]
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होते हैं-जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय।
१. जीवास्तिकाय - असंख्यात प्रदेशी, अखंड, अभेद, चेतन लक्षण ब्रह्म स्वरूपी। जीव अपेक्षा - अनन्त जीव ।
२. पुद्गलास्तिकाय - संख्यात, असंख्यात, अनन्त प्रदेशी, सूक्ष्म परमाणु से स्थूल स्कन्ध रूप परिणमन करने वाला, कर्म रूप स्वतंत्र सत्ताशक्ति वाला । परमाणु अपेक्षा-अनन्तानन्त।
३. धर्मास्तिकाय - असंख्यात प्रदेशी, एक, सर्वत्र व्यापक-उदासीन निमित्त।
४. अधर्मास्तिकाय - असंख्यात प्रदेशी है। ५. लोकाकाश - अनंत प्रदेशी है। प्रश्न - काल द्रव्य को अस्तिकाय क्यों नहीं कहा?
समाधान - काल द्रव्य एक प्रदेशी ही होता है इसलिये अस्तिकाय नहीं कहा।
प्रश्न - अस्तिकाय किसे कहते हैं?
समाधान -जो अस्ति अर्थात् सदा विद्यमान रहे तथा कायवान भी हो वह अस्तिकाय है।
प्रश्न - इन सत्ताईस तत्वों को जानने का प्रयोजन क्या है?
समाधान - सत्ताईस तत्वों को जानने का प्रयोजन ज्ञान की शद्धि होना । संशय, विभ्रम, विमोह (अनध्यवसाय) रहित सम्यग्ज्ञान होना क्योंकि वर्तमान संसारी संयोगी दशा में भेदज्ञान पूर्वक अपने सत्स्वरूप का श्रद्धान, निज शुद्धात्मानुभूति होना ही सम्यग्दर्शन है। अब शरीरादि से भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा हूँ यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं, ऐसा श्रद्धान ज्ञान में आया। पर यह शरीरादि कर्म और संयोग क्या
हैं, कहाँ से आये, इन्हें किसने बनाया, यह कैसे बनते और चलते हैं, इनका परिणमन कब तक कैसे चलेगा, इनका कर्ता कौन है ? तथा जब मैं आत्मा, शुद्धात्मा, परमात्मा हूँ, तो इस दशा में यह सब कैसा क्या है ? इन सब शंका, प्रश्नों का समाधान, इन सत्ताईस तत्वों के स्वरूप को जानने से होता है और तभी यथार्थ ज्ञान, सम्यग्ज्ञान होता है।
प्रश्न - इन सत्ताईस तत्वों का भेद खुलासा करके बताइये?
समाधान - यह तो पूरा आगम का विषय है जो प्रथमानयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग रूप स्वयं के स्वाध्याय, अभ्यास और अनुभव में आने पर सिद्ध होता है। यहाँ तो मूल बात अपने शुद्धात्म तत्व का लक्ष्य बनाकर आगम का स्वाध्याय, अभ्यास किया जाये तो ज्ञान के क्षयोपशम, विवेक के जागरण पर स्वयं अनुभव में आता है। मूल बात इन सात तत्व, छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय में एक चेतन लक्षण जीव ही सर्वश्रेष्ठ है, यही इन सब का प्रकाशक जानने वाला है. इसके कारण ही यह सब सक्रिय रहते हैं, इनके निमित्त-नैमित्तिक संबंध से ही संसार चलता है। जीव ब्रह्मस्वरूपी, परमात्मा, शुद्धात्म तत्व अपने स्वरूप में लीन हो जाये, तो उससे संबंधित यह सब संसार, संयोग संबंध खत्म हो जाये, जिससे जन्म मरण के चक्र संसार परिभ्रमण से छूटकर पूर्ण शुद्ध सिद्ध परमात्मा हो जाये। वर्तमान में यह जीव, द्रव्य रूप से सबमें मिला है, अस्तिकाय से शरीराकार एकमेक हो रहा है, कर्म संबंध पाप-पुण्य के द्वारा पदार्थ रूप संसार में है। अब भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन हो, सम्यग्दृष्टि बने तो तत्व-श्रद्धान का विषय है। पदार्थ-ज्ञान का विषय है। द्रव्य-चारित्र का विषय है। अस्तिकाय तप का विषय है। इनकी साधना करके मुक्ति पा सकता है। (ठिकानासार)
निश्चय दृष्टि से प्रत्येक जीव परमात्म स्वरूप ही है. जिनवर और जीव में अंतर नहीं है, भले ही वह एकेन्द्रिय का जीव हो या स्वर्ग का जीव हो, वह सब तो पर्याय है। आत्मा, वस्तु स्वरूप से तो परमात्मा ही है, पर्याय के ऊपर से हटकर जिसकी दृष्टि स्वरूप के ऊपर गई है वह तो अपने को भी परमात्म स्वरूप देखता है और प्रत्येक जीव को भी परमात्म स्वरूप देखता है। सम्यग्दृष्टि-सर्व जीवों को जिनवर जानता है और जिनवर को जीव