Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 69
________________ ११५ ] [मालारोहण जी नाश नहीं होता पर प्रथम तो स्वभाव का भान होना चाहिए, तब ही द्रव्यसंयम सहित भाव संयम होता है। जिनके अन्तर में भेदज्ञान रूपी कला जग जाती है, चैतन्य के आनन्द का वेदन हुआ है ऐसे ज्ञानी धर्मात्मा सहज-वैरागी हैं। ऐसे ज्ञानी विषय कषायों में मगन रहें, यह विपरीतता सम्भवित नहीं है, जिन जीवों को विषयों में पापों में सुख बुद्धि है, इष्ट बुद्धि है, वे ज्ञानी नहीं हैं। सम्यग्दृष्टि जीव आत्म ज्ञान पूर्वक आचरण पालते हैं, श्रावक को बारह व्रत का तथा मुनियों को मूलगुण के पालन का विकल्प आता है। अज्ञानी जीव शास्त्रों का रहस्य नहीं समझता अतः उसका समस्त ज्ञान कुज्ञान है तथा सम्यग्दृष्टि जीव यदि पढ़ा लिखा भी न हो तो उसका ज्ञान सुज्ञान है, जिसकी दृष्टि सुलटी है, उसका सब कुछ सुलटा है व जिसकी दृष्टि उलटी है उसका सारा ज्ञान उल्टा है। मिथ्यादृष्टि नौ पूर्व व ग्यारह अंग का पाठी हो, तो भी उसका ज्ञान अज्ञान ही है। असंयत, देशसंयत सम्यग्दृष्टि के पाप, विषय- कषाय की प्रवृत्ति तो है परन्तु उसकी श्रद्धा में कोई भी पाप-विषयादि करने का अभिप्राय नहीं रहता । अभी जिसको अन्तर में आत्मभान ही न हो तथा तत्संबन्धी कुछ भी विवेक न हो, वैराग्य न हो और वह अपने को ज्ञानी माने तो वह स्वच्छन्द पोषण करता है। ज्ञान वैराग्य शक्ति बिना वह पापी ही है। ज्ञानी की दृष्टि तो संसार से छूटने की है अत: वह राग रहित निवृत्त स्वभाव की मुख्य भावना व आदर में सावधानी से प्रवृत्त रहता है। प्रश्न- जब आत्मा का स्वभाव एक है अभेद है, अखंड है, शाश्वत है, ध्रुव है फिर यह भेद करके दश धर्म का पालन करने इन गुणों को प्रगट करने की क्या बात है ? समाधान आत्मा द्रव्य स्वभाव से तत्व स्वरूप में तो एक अभेद है, गाथा क्रं. ८ ] [ ११६ अखंड, शाश्वत ध्रुव है और यह श्रद्धा का विषय, शुद्ध निश्चय से है, ऐसे निज स्वरूप के अनुभूति युत सत्श्रद्वान का नाम ही सम्यग्दर्शन है। जब यह अनुभूतियुत सत्श्रद्वान हो गया तो अब वर्तमान पर्याय तो अशुद्ध है। रागादि कर्म संयोग सहित है, इस बात का ज्ञान भी हुआ, अब पूर्व कर्म बन्धोदयजन्य जो संस्कार प्रवृत्ति चलती है, उनसे बचना- हटना, अपने स्वरूप का स्मरण ध्यान करना आवश्यक है क्योंकि अभी जिस भूमिका अव्रत दशा संसारी ग्रहस्थ दशा में रहने पर वैसे कर्मोदय संयोग निमित्त मिलते हैं और पाप के विषयों के कषायों के भाव चलते हैं। अभी मोह, राग-द्वेष का सद्भाव है, तो इनसे बचने के लिए यह भेद करके धर्म की साधना करना पड़ती है, अपने आत्मगुणों को प्रगट करने का पुरूषार्थ करना पड़ता है। इसके लिए बार-बार अपने स्वरूप के स्मरण, भेदज्ञान, तत्वनिर्णय का अभ्यास आवश्यक है। . मोक्ष केवल एक अपने ही आत्मा की, पर के संयोग रहित शुद्ध अवस्था का नाम है। तब उसका उपाय भी निश्चय नय से भी पर्याय में एक यही है कि अपने शुद्धात्मा का अनुभव किया जावे तथा सिद्ध परमात्मा के समान ही अपने को माना जावे। जब ऐसा बार-बार अभ्यास और साधना की जावेगी, तब अनादि की मिथ्या वासना का अभाव होगा क्योंकि अनादि से यही मिथ्याबुद्धि थी कि मैं नर हूँ, नारकी हूँ, तिर्यंच हूँ, देव हूँ या मैं रागी हूँ, द्वेषी हूँ, क्रोधी हूँ, मानी हूँ, मायावी हूँ, लोभी हूँ, कामी हूँ, रूपवान हूँ, बलवान हूँ, धनवान हूँ, निर्धन हूँ, रोगी हूँ, निरोगी हूँ, बालक, युवा, वृद्ध हूँ, मैं ही जन्मतामरता हूँ, इसी को यह अज्ञानी अपनी ही मूल दशा मान लेता था तथा अपने को दीन-हीन, संसारी मान रहा था, श्री गुरू के उपदेश से या शास्त्र के ज्ञान से जब स्वयं ज्ञान नेत्र खुले, शुद्धात्म स्वरूप का जागरण हुआ और यह प्रतीति हुई कि मैं तो स्वयं भगवान आत्मा परमात्मा हूँ, मैं तो संसार के प्रपंचों से रहित हूँ, मैं कर्मों से अलिप्त हूँ, परम वीतरागी परमानन्द मयी हूँ। जो सत्ता शक्ति अनन्त गुण, अरिहन्त, सिद्ध परमात्मा में हैं, वही सब मेरे में हैं। अन्तर यही है कि उनके अनन्त चतुष्टय आदि केवलज्ञान प्रगट व्यक्त हो गया, मेरे अ-अव्यक्त है। जिन्होंने अपने को शुद्ध समझकर पूर्ण वैरागी होकर

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