Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 71
________________ ११९ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ९ ] [ १२० पर अभी कर्म सापेक्ष संयोगी दशा अशुद्ध पर्याय का परिणमन चल रहा है, इस दशा में अपने शुद्धात्म तत्व को हमेशा देखना, ममल स्वभाव में स्थित रहना तो नहीं बनता यह कर्मोदय जन्य संकल्प, विकल्प चलते हैं, मोह, राग-द्वेषादि भाव होते हैं ऐसे में क्या करें? तो सद्गुरू कहते हैं कि अब ज्ञान गुण की और चारित्र गुण की शुद्धि करो क्योंकि शुद्ध सम्यक्त्व तो अपने में परिपूर्ण है, शुद्धात्मानुभूति तो पूर्ण होती है पर ज्ञान और चारित्र में क्रमश: विकास होता है। सम्यग्दर्शन होने से ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् कहे जाते हैं पर उनमें अपेक्षा होती है। अनुभूति के काल में तीनों बराबर सही हैं पर अनुभूति से हटने के बाद ज्ञान और चारित्र कर्मावृत हो जाते हैं। यह अपने में स्थित तो नहीं हो पाता परन्तु जब निर्णय करता है उस समय भी आत्मा से आत्मा का निर्णय करता है, मन और राग की गौणता करता है, आत्मा को अधिक करता है और राग को गौण करता है अर्थात अंशत: राग से मुक्त होकर स्वत: अधिक होकर आत्मा से आत्मा का निर्णय करता है परन्तु जब स्वरूप में स्थित हो जाता है तब बुद्धि पूर्वक पर के विकल्प छूट जाते हैं, बुद्धि पूर्वक मन का निमित्त छूट जाता है और चिदानन्द चिद्रूप में उपयोग लीन होता है। जब समस्त नय पक्षों के विकल्पों को पुरुषार्थ से रोक देने से अखण्डित हुआ समस्त विकल्पों का व्यापार लक गया और अपने अखण्डित स्वरूप का अनुभव करता है वही समयसार है,वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। पर से भिन्न आत्मा का यदि भान हो तो पर से पृथक् रहकर आत्मा की जाग्रति रख सकता है, जिसे भिन्न चिदानन्द आत्मा का भान नहीं है वह जीवित होते हुये भी मृतक के समान है। (श्री तारण तरण श्रावकाचार) मैं चिदानन्द आत्मा ज्ञान स्वरूपी हूँ जिसे इसका भान है वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान कहलाता है। प्रथम आत्मा का यथार्थ निर्णय करके पश्चात् पर प्रसिद्धि का जो कारण है ऐसी इन्द्रिय और मन द्वारा प्रवर्तती बुद्धि उसे मर्यादा में लाता है पश्चात् उस मतिज्ञान के व्यापार रूप बुद्धि को अर्थात् मतिज्ञान के व्यापार को आत्मसन्मुख करता है और अनेक प्रकार के नय पक्ष के अवलम्बन से अनेक प्रकार के विकल्पों से आकुलता उत्पन्न होती है ऐसी श्रुतज्ञान की बुद्धि को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान को भी आत्मसम्मुख करता है। इस प्रकार दोनों ज्ञान के व्यापार को आत्म संमुख करके अत्यन्त विकल्प रहित होता है, उसी समय आत्म स्वभाव निज रस से प्रगट होता है। आदि मध्य और अन्त रहित आत्मा का अनुभव करता है विकल्पों का एकत्व छूट जाने से केवल एक रूप सम्पूर्ण विश्व के ऊपर मानो तैरता हो, ऐसा आत्मा का अनुभव होता है। विकल्प की ओर ज्ञान जुड़ता है तब अस्थिरता होती है। जिसमें विकल्प प्रविष्ट नहीं होता, ऐसे विज्ञान घन आत्मा का अनुभव करना यही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रूप समयसार है, यही भगवान के दर्शन हैं,यही ईश्वर के दर्शन हैं,यही परमात्मा के दर्शन हैं. इसी समय आत्मा के यथार्थ दर्शन होते हैं और यही यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान है। जिस प्रकार पानी अपने समूह से च्युत हुआ, दूर गहन वन में बह रहा हो, उसे दूर से ही ढ़ाल वाले मार्ग द्वारा अपने समूह की ओर बल पूर्वक ढाला जाता है पश्चात् वह पानी-पानी को पानी के समूह की ओर खींचता हुआ, प्रवाह रूप होकर अपने समूह में आ मिलता है उसी प्रकार यह आत्मा अपने विज्ञान घन स्वभाव से च्युत होकर प्रचुर विकल्प जाल के गहन वन में दूर भ्रमण कर रहा है। आत्मा का स्वभाव तो ज्ञान आनन्द का कन्द है, विकल्प जाल आत्मा का स्वभाव नहीं है, आत्मा विज्ञान घन अरूपी-ज्ञान आनन्द का पिंड है, ऐसे स्वभाव से च्युत होकर भ्रांति में और राग द्वेष की वृत्तियों में भ्रमण करता है शरीर. इन्द्रियाँ, शुभाशुभ विकल्प, यह सब मैं ही हूँ इस प्रकार भाँति द्वारा विकल्प जाल के गहन वन में फिरता रहता है, प्रचुर विकल्प जाल में फंसा रहता है। स्व-पर का यथार्थ निर्णय होने, वस्तु स्वरूप को जानने पर ज्ञान की शुद्धि होती है, विवेक से भेदज्ञान किया, अपने को पकड़ा परन्तु अभी स्थिरता

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