Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 58
________________ [मालारोहण जी गाथा क्रं.७] [ ९४ का अनुभव करता है। वही संसार से छूट जाता है। देह विभिण्णउ णाण मउ, जो परमप्पु णिएई। परम समाहि परिडियउ,पंडिउ सो जिहवेई॥१४गा.परमात्म प्रकाश।। जो कोई अपनी देह से भिन्न अपने आत्मा को ज्ञान मई परमात्मा रूप में देखता है । वह परम समाधि में स्थित होकर ध्यान करता है वही पंडित अंतरात्मा है। विन्यानं जेवि जानते, अप्पा पर परषये। परिचये अप्प सदभावं, अंतर आत्मा परषये ॥ ४९ गा. तारण तरण श्रा.।। जो जीव भेद विज्ञान के द्वारा आत्मा और पर को भिन्न जानते हैं। अपने आत्म स्वभाव की अनुभूति हो गई वही अन्तरात्मा जानो। (३) परमात्मा का स्वरूप णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु । सो परमप्पा जिण भणिउ एहउ जाणि णिभंत ॥ गा.९ योगसार।। जो कर्म मल व रागादि मल रहित है। जो निष्कल अर्थात् शरीर रहित है जो शुद्ध व अभेद एक है। जो जिन है. विष्ण है. बद्ध है. शिव है. परमशांत वीतराग है, वही परमात्मा है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। इस बात को शंका रहित जानो। परमात्म प्रकाश में कहा है (गाथा १५-१७-२३) जिसने सर्व कर्मों को दूर करके व सर्व देहादिपर द्रव्यों का संयोग हटाकर अपने ज्ञानमय आत्मा को पाया है। वही परमात्मा है उसे शुद्ध मन से जान। वह परमात्मा नित्य है । निरंजन, वीतराग है, ज्ञानमय है, परमानंद स्वभाव का धारी है, वही शिव है,शांत है। अपने शद्ध स्वभाव को पहिचानों जिसको वेदों के द्वारा,शास्त्रों के द्वारा, इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता मात्र निर्मल ध्यान में वह झलकता है। वही अनादि, अनंत, अविनाशी, शुद्ध आत्मा परमात्मा है। समन्तभद्राचार्य स्वयं भू स्तोत्र में कहते हैं- (श्लोक ५७-११५) परमात्मा वीतराग है वह हमारी पूजा से प्रसन्न नहीं होते, परमात्मा बैर रहित हैं, हमारी निंदा से अप्रसन्न नहीं होते तथापि उनके पवित्र गुणों का स्मरण मन को पाप के मैल से साफ कर देता है। अनुपम योगाभ्यास से जिसने आठ कर्म के कठिन कलंक को जला डाला है व जो मोक्ष के अतीन्द्रिय सुख को भोगने वाला है वही परमात्मा है। आत्मा परमात्म तल्यच,विकल्प चितन क्रीयते । सबभाव स्थिरी भूत, आस्मन परमात्मन ॥ (गा. ४८ तारण तरण श्रावकाचार) जिस समय चित्त कोई विकल्प न करता हो अर्थात् निर्विकल्प दशा हो उस समय आत्मा परमात्मा के बराबर है और जब आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित हो जाये ४८ मिनिट लीन रहे, वही आत्मा परमात्मा है। मैं वह जो है भगवान, जो मैं हूँ वह भगवान । अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यहां राग वितान ॥ "एक जिनं स्वरूपं ।“ एक जिन को स्वरूप सोई-२४ जिन को, सोई ७२ जिन को, सोई १४९ चौबीसी को और सो ही प्रत्येक जीव को जामें कोई भेद नाहीं। (महावीर वाणी) स्वामी देहालय सोई सिखाले, भेउ न रहे। जन जाके अन्मोय, सो न्यानी मुक्ति लहे॥ (श्री तारण स्वामी ममल पाहुड) जो आत्मा इस शरीर में है, वैसा ही आत्मा सिद्धालय में है। इनके स्वरूप में कोई भेद नहीं है, जो जीव इस बात को स्वीकार करते हैं, वह ज्ञानी मुक्ति प्राप्त करेंगे। जो निगोद में सोई मुझमें सो ही मोक्ष मंझार । निश्चय भेद कछु भी नाही, भेद गिने संसार ॥ इस प्रकार भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट यह वस्तु स्वरूप निज आत्मा का स्वरूप है, इसको स्वीकार करने वाला ही सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गी है वही वर्तमान में भी मुक्ति सुख भोगता है क्योंकि ज्ञानी सम्यग्दृष्टि का भाव मोक्ष हो जाता है, द्रव्य मोक्ष अपने समय पर सब कर्मादि संयोग छूटने पर होता है। समयसार कलश में श्री अमृत चन्द्राचार्य कहते हैं- (श्लोक ३७)

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