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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.७]
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मुक्त हो गया वह परमात्मा है।
इसी बात को निम्न आचार्यों ने कहा है, योगसार में योगिन्दु देव कहते हैं
तिपयारो अप्पा मुणहि, पल अंतरू बाहिरप्पु ।
परमायहि अंतर सहिउ,बाहिरूचयहि णिभंतु ॥६॥
आत्मा के तीन प्रकार जानो परमात्मा, अन्तरात्मा, बहिरात्मा भ्रांति या शंका रहित होकर बहिरात्मपना छोड़ दे, अन्तरात्मा होकर परमात्मा का ध्यान कर। पूज्यपाद स्वामी ने समाधि शतक में कहा है -
बहिरन्त : परश्चेति विधात्मा सर्वदेहिषु ।
उपेयात्तत्र परम, मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ॥४॥ सर्व ही प्राणियों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा तीन प्रकार पना है उनमें से बहिरात्म पना छोड़े, अन्तरात्मा के उपाय से परमात्म पने को सिद्ध करे। योगिन्द्राचार्य परमात्म प्रकाश में कहते हैं
अप्पा तिविहु मुणेवि बहु, मूढउ भेल्लहि भाउ । मुणि सण्णाणे णाणमऊ,जो परमप्प सहाउ ॥२॥
आत्मा को तीन प्रकार का कहा है- बहिरात्म स्वरूप भाव को शीघ्र ही छोडे और जो परमात्मा का स्वभाव है, उसे स्वसंवेदन ज्ञान से अन्तरात्मा हुआ जान वह स्वभाव केवलज्ञान से परिपूर्ण है।
श्री तारण तरण मंडलाचार्य, श्री श्रावकाचार में कहते हैं
आत्मा त्रिविधि प्रोक्तं च, परू अंतरू बहिरप्पयं । परिणामं जं च तिस्टंते, तस्यास्ति गुन संजुतं ॥४७॥
आत्मा तीन प्रकार का कहा गया है- परमात्मा,अन्तरात्मा, बहिरात्मा जो जीव जैसे परिणामों में ठहरता है वह उन गुणों से संयुक्त है अर्थात् वैसा कहा जाता है।
(१) अब बहिरात्मा कौन है, कैसा होता है ? इसे कहते हैंमिच्छादसण मोहियउ परू अप्पा ण मुणेइ। सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुण संसाल भमे॥७॥ योगसारा।
मिथ्यादर्शन से मोही जीव परमात्मा को नहीं जानता है वही बहिरात्मा है वह बारम्बार संसार में भ्रमण करता है ऐसा श्री जिनेन्द्र देव ने कहा है।
श्री नागसेन मुनि तत्वानुशासन में कहते हैं-(श्लोक १४ से १६)
बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि जीव ममकार व अहंकार के दोषों से लिप्त रहता है। शरीर, धन, परिवार, देश, ग्रामादि, पदार्थ जो संयोग में अपने आत्मा से जुड़े हैं व जिनका संयोग कर्म के उदय से हुआ है उनको अपना मानना ममकार है। जैसे यह शरीर मेरा है। जो कर्म के उदय से होने वाले रागादि भाव निश्चय से आत्मा से भिन्न हैं। उन रूप ही अपने को रागी द्वेषीआदि मानना, अहंकार है। जैसे - मैं राजा हूँ, यह प्राणी इन्द्रिय से पदार्थों को जान कर उसमें मोह करता है. राग करता है, द्वेष करता है तब कर्मों को बांध लेता है। इस तरह यह बहिरात्मा-मोह की सेना में प्राप्त हो, संसार में रूलता है।
श्री तारण स्वामी जी, श्री तारण तरण श्रावकाचार में कहते हैंबहिरप्पा पुद्गल दिस्टा, रचन अनन्त भावना। परपंच जेन तिस्टते, बहिरप्पा संसार स्थित ॥५०॥ बहिरप्पा परपंच अर्थच, तिक्तते जे विषषना । अप्पा परमप्पयं तुल्यं, देव देवं नमस्कृतं ॥५१॥
बहिरात्मा, पुद्गल शरीरादि को ही देखता है और उनकी रचना की अनन्त भावनायें करता है। जो हमेशा प्रपंचों में ही लगा रहता है वह बहिरात्मा संसार में ही स्थित रहता है।
बहिरात्मा अपने स्वरूप को नहीं जानता है कि मैं आत्मा स्वयं परमात्मा के समान हूँ, देवों के देव द्वारा वंदनीय हैं ऐसे अपने विलक्षण स्वरूप को छोड़कर प्रपंचों अर्थात् शरीरादि संयोग को प्रयोजनीय मानता है।
(२) अन्तरात्मा का स्वरूपजो परियाणइ अप्प पल,जो पर भाव पए। सो पंडिउ अप्पा मुणहि, सो संसार मुए। गाथा ८ योगसार ।
जो कोई आत्मा और पर को अर्थात् आपसे भिन्न शरीरादि पदार्थों को भले प्रकार पहिचानता है तथा जो अपने आत्मा के स्वभाव को छोड़कर अन्य सब भावों को त्याग देता है, वही पंडित भेदज्ञानी अंतरात्मा है वह अपने आप