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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ५ ]
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काल। इनमें चार द्रव्य तो अपने में पूर्ण शुद्ध स्थित हैं। जीव और पुद्गल-यह दो ही द्रव्य हैं जो अनादि से एक दूसरे में मिले हुये निमित्त नैमित्तिक संबंध द्वारा अशुद्ध पर्याय रूप परिणमन चल रहा है, यही संसार चक्र है। इसमें भी दोनों द्रव्य अपनी-अपनी क्रियावती शक्ति अनुसार परिणमन कर रहे हैं। अनादि से एक क्षेत्रावगाह, निमित्त-नैमित्तिक, श्लेष्म सम्बन्ध होने पर भी एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, एक दूसरे को छूता नहीं है क्योंकि जीव, चेतन अरूपी अस्पर्शी है और पुद्गल, अचेतन,रूप, रस, गंध, वर्णवाला है। दोनों का परिणमन अपने-अपने में भिन्न स्वतंत्र चल रहा है। इनके गमन करने चलने में धर्म द्रव्य सहकारी है। रूकने ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी है। परिणमन में काल द्रव्य सहकारी है। सबको स्थान देने वाला आकाश द्रव्य है । छहों द्रव्य अपने-अपने में पूर्ण स्वतंत्र हैं। इनमें जीव द्रव्य अनन्त हैं। पुदगल द्रव्य परमाणु रूप अनन्तानन्त हैं। धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य एक-एक हैं। काल द्रव्य असंख्यात कालाणु हैं। जो अपने-अपने में अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता से परिणमन कर रहे हैं। इसे जानने मानने वाला ज्ञानी होता है।
प्रश्न - जब सब द्रव्य अपने-अपने में स्वतंत्र परिणमन कर रहे हैं फिर यह संसार चक्र क्या है?
समाधान-यह जीव की अज्ञानता मिथ्या मान्यता का परिणाम है जो अनादि से चल रहा है क्योंकि अनादि से सब जीव अपने स्वरूप को भूले हैं और यह शरीर ही मैं हूँ यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इन सब का कर्ता हूँ। इस कारण चार गति चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण करते संसार चक्र में घूम रहे हैं।
प्रश्न- इससे छूटने का उपाय क्या है?
समाधान- इससे छुटने मुक्त होने का ही उपाय बताया जा रहा है कि जो जीव भेदज्ञान पूर्वक अपने स्वरूप का सत्श्रद्वान कर लेता है तत्व निर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप जान लेता है वह सम्यग्दृष्टी ज्ञानी हो जाता है फिर अपने स्वरूप की साधना से सारे कर्म बंधनों से मुक्त पूर्ण शुद्ध परमात्मा हो जाता
प्रश्न - यह हृदय चित्त क्या है, इसका स्वरूप क्या है?
समाधान - यह हृदय अन्त:करण को कहते हैं इसके चार भेद हैंमन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। यह मनुष्य की विशेष उपलब्धि है। जो घातक भी है और साधक भी है। यह शरीर और जीव के अन्दर बीच में चलने वाली कर्मो की फिल्म है जो दोनों को ही प्रभावित करती है। इनका अलग-अलग स्वरूप निम्न प्रकार है
(१)मन - मोह माया से ग्रसित, कर्मोदय जन्य क्षणभंगुर नाशवान विचारों के प्रवाह को मन कहते हैं। "मन एव मनुष्याणां कारणंबंध मोक्षयो:"। मन ही मनुष्य के बंध का कारण और यही मोक्ष का कारण है। इसके चक्कर में फंसा हुआ मनुष्य हमेशा सुखी-दुःखी भयभीत चिन्तित परेशान रहता है, संकल्प-विकल्प करना ही मन का काम है, यह मोहनीय कर्म की पर्याय है।
(२) बुद्धि- जिसके द्वारा हित-अहित अच्छे बुरे का निर्णय किया जाता है। बुद्धि ही मनुष्य भव की विशेषता है। यह अज्ञान दशा में कुबुद्धि और ज्ञान दशा में सुबुद्धि कहलाती है। इसी को विवेक कहते हैं। यह ज्ञानावरणी कर्म की पर्याय है।
(३) चित्त- जिसमें धारणा श्रद्धान शक्ति होती है । जो चिंतवन करता है उसे चित्त कहते हैं। यह चंचल स्थिर, दृढ-अदृढ, मजबूत, कमजोर होता है। इसके द्वारा ही मन, बुद्धि को संयमित किया जाता है। यह दर्शनावरणी कर्म की पर्याय है।
(४) अहंकार - कषाय रूप परिणति को अहंकार कहते हैं। इसके द्वारा ही संसार का सारा खेल चलता है। इसके मिटते ही संसार मिट जाता है। यह जीव के पुरुषार्थ को ढके रखता है, यह अन्तराय कर्म की पर्याय है।
यह अन्त:करण चतुष्टय ही जीव के अनन्त चतुष्टय को आवृत किये हैं। इसका जैसा परिणमन चलता है। वैसा जीव कहने में आता है वैसे जीव का इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। जैसे- सिनेमा में जो फिल्म परदे पर चलती