Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 42
________________ [मालारोहण जी है। उस रूप ही दिखता है पर फिल्म अलग है परदा अलग है। उसी प्रकार यह अन्त:करण चतुष्टय अलग है और अनन्त चतुष्टय वाला मैं जीव आत्मा अलग हूँ, ऐसा समझ लेना ही जिनवाणी को समझ लेना है क्योंकि सच्ची समझ का नाम ही मुक्ति है। प्रश्न- सच्ची समझ क्या है? समाधान - चाहे समझो पलक में, चाहे जन्म अनेक । जब समझे तब समझे हो, घट में आतम एक ॥ मैं आत्मा कैसा हूँ ? इस बात को समयसार में कहा है आत्मा न प्रमत्त हैन अप्रमत्त है, न ज्ञान है, न दर्शन है, न चारित्र है, मात्र अभेद अखंड एक ज्ञायक भाव रूप है, परम शुद्ध है। परम ध्यान का ध्येय एकमात्र श्रद्धेय यह भगवान आत्मा न तो कर्मों से बद्ध ही है और न कोई पर पदार्थ उसे स्पर्श कर सकता है। वह ध्रुव तत्व पर से पूर्णत: असंयुक्त अपने में ही सम्पूर्णत: नियत अपने से अनन्य एवं समस्त विशेषों से रहित है, पर से भिन्न और अपने से अभिन्न, इस भगवान आत्मा में प्रदेश भेद, गुण भेद एवं पर्याय भेद का भी अभाव है, भगवान आत्मा के अभेद अखंड इस परम भाव का ग्रहण करने वाला न ही शुद्ध है। ६१ ] जो व्यक्ति इस शुद्ध नय के विषय भूत भगवान आत्मा को जानता है। वह समस्त जिन शासन का ज्ञाता है क्योंकि समस्त जिन शासन का प्रतिपाद्य एक शुद्धात्मा ही है-इसके आश्रय से ही निश्चय सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, रूप मोक्ष मार्ग प्रगट होता है। मोक्षार्थियों के द्वारा एक मात्र यही आराध्य है, यही उपास्य है। इसकी आराधना उपासना का नाम ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र है। यही सच्ची समझ है, अपने स्वरूप में रमने जमने से मुक्ति होती है । प्रश्न- यह मन आदि अन्तःकरण को रोकने शुद्ध करने का क्या उपाय है ? गाथा क्रं. ५ ] [ ६२ अन्तःकरण की शुद्धि होती, ज्ञान भाव में रहने से । सारे भाव दिला जाते हैं, ॐ नमः के कहने से ॥ इनकी तरफ से दृष्टि हटा लेना अपने ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूप का स्मरण ध्यान करना, ज्ञान स्वभाव में रहना ही इष्ट प्रयोजनीय है, इससे ही यह अपने आप रूक जाते हैं और शुद्ध भी होते जाते हैं, इनको रोकना या शुद्ध करना नहीं है क्योंकि जब यह सिद्धान्त है, निर्णय है कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, कर नहीं सकता। एक द्रव्य की पर्याय आगे आने वाली पर्याय को रोक बदल नहीं सकती, इस बात को न मानना ही अज्ञान है। पर का कर्तृत्व ही मिथ्यात्व है। अतः इनको रोकना या शुद्ध करना नहीं है इनसे अपनी दृष्टि को हटा लेना है और अपने शुद्ध स्वरूप में रहना ही इसके रोकने और शुद्ध होने का उपाय है। समाधान - प्रश्न- जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता सब अपने में पूर्ण शुद्ध और स्वतंत्र हैं फिर यह शरीरादि संयोग, कर्म, अन्तःकरण आदि का चक्कर कहां से आया, फिर यह सब क्या है? समाधान बस इसी को समझने का नाम मालारोहण है, यही समयसार है। यह जिज्ञासा जगना और इसको समझ लेना ही वर्तमान का पुरुषार्थ है । वस्तु स्वरूप समझने और द्रव्य की स्वतंत्रता को जानने का मतलब भी यही है कि हमारे भीतर ऐसा विचार, छटपटाहट, जिज्ञासा पैदा हो जाये और इसे सही ढंग से अर्थात् अपने आत्म कल्याण, मुक्त होने की भावना से समझ लें तो भेदज्ञान, सम्यग्दर्शन, सहज में हो जाये। मूल बात - जीव शुद्ध-बुद्ध अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा है। ममल स्वभावी, ध्रुव तत्व सिद्धस्वरूपी शुद्धात्मा है यह अपने ब्रह्मस्वरूप परमात्म तत्व को भूलकर अनादि से यह शरीर ही मैं हूँ, यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इनका कर्ता हूँ, ऐसा मानता चला आ रहा है, यही अज्ञान मिथ्यात्व संसार परिभ्रमण का कारण है। - अब यह शरीरादि संयोग कर्म अन्तःकरण आदि कहां से आये ? तो यह भी अनादि से हैं। इन्हें किसी ने बनाया नहीं है। यह जीव अनादि से इनमें मिला एकमेक हो रहा है। जीव अनन्त हैं और सबकी यही दशा हो रही है,

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