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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ५ ]
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होने ही वाला है। ऐसा निर्णय पुरूषार्थ से होता है। पुरूषार्थ स्वभाव में रहना है तथा स्वभाव ज्ञान स्वरूप है।
आध्यात्मिकता मनुष्य को पलायन नहीं सिखलाती है बल्कि उसके अन्तर जगत को सुव्यवस्थित कर उसे कर्म की ओर प्रवृत्त करती है तथा उसे समभाव जनित स्थायी सुख एवं शांति प्रदान करती है।
अध्यात्म एक विज्ञान है, एक कला है,एक दर्शन है। अध्यात्म मानव के जीवन में जीने की कला के मूल रहस्य को उद्घाटित कर देता है।
काल नय की अपेक्षा जिनकी सिद्धि समय पर आधारित है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र, केवलज्ञान आदि जिस समय प्रगट होने वाले हैं, उसी समय प्रगट होते हैं। जिस समय जो होना है वह उसी समय होता है, परन्तु इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि पुरूषार्थ बिना हो जाता है।
कालनय से ज्ञान करने वाले साधक की दृष्टि काल ऊपर नहीं वरन स्वभाव पर होती है अत: वे काल नय से जानते हैं कि जिस समय चारित्र प्रगट होना है, उसी समय प्रगट होगा जिस काल केवलज्ञान होना है, उसी समय प्रगट होगा।
किसी मुनि को लाखों वर्षों तक चारित्र पालन करने पर भी केवलज्ञान प्रगट होने में समय लगता है। किसी मुनि को अल्पकाल में ही केवलज्ञान हो जाता है अत: दीर्घ काल तक चारित्र पालन करने वाले मुनि को अधीरता नहीं होती क्योंकि वे जानते हैं कि केवल ज्ञान होगा ही, वह अपने स्वकाल में ही प्रगट होगा। (परमागमसार २८२)
___ सम्यग्दृष्टि ऐसा जानता है कि शुद्ध निश्चय नय से मैं मोह, राग-द्वेष रहित हूँ। वह स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति नहीं करता। सम्यग्दृष्टि अशुभ से छूटने हेतु वांचन, श्रवण, विचार, भक्ति, संयम आदि करता है। प्रयत्न करके ही अशुभ को छोड़कर शुभ में प्रवृत्त होता है। शास्त्र में भी ऐसा उपदेश है परमार्थ दृष्टि से शुभ और अशुभ समान हैं। फिर भी स्वयं की भूमिकानुसार अशुभ से छूटकर शुभ में प्रवृत्त होने का विवेक रहता है और वैसे ही विकल्प भी आते हैं।
इस प्रकार वस्तु स्वरूप को जानने वाला ही पुरूषार्थी होता है। यह बात इस कथानक के माध्यम से और स्पष्ट हो जायेगी।
एक गांव में एक सेठ रहता था, जो कपड़े का व्यापार करता था। एक दिन सेठ जी एक गांव का हाट करने के लिए गाड़ी में माल भरकर और नौकर को साथ लेकर रात्रि में रवाना हो गये, ठंड के दिन थे,प्रात: एक गांव के पास पहुँचे. सेठजी ने नौकर से कहा-कुछ ईंधन इकट्ठा कर जलाओ, ताप कर फिर आगे चलेंगे। नौकर ने कहा-सेठ जी थोड़ी देर और चले चलो, वह सामने जो लकडी का टाल दिख रहा है, उसमें अभी आग लगने वाली है, सो खूब ताप लेना । सेठ चुपचाप बैठे रहे-थोड़ी देर बाद देखते हैं कि अनायास लकड़ी के टाल में आग लग गई और सब लकड़ी जलने लगीं, सेठजी पास पहुँचे, देखा टाल जल रहा है। गाँव के लोग आग बुझाने में लगे हैं। पर टाल का मालिक शांत खड़ा था और लोगों से कह रहा था- सावधानी से आग बुझाना किसी को चोट न लगे। सेठ जी ने देखा-बड़े आश्चर्यचकित हुये कि यह कैसा आदमी है! जो इतना नुकसान होने पर भी शान्त है। न रो रहा न चिल्ला रहा। नौकर से पूछा-यह क्या बात है ? नौकर ने बताया कि जो होने वाला है, उसे टाला नहीं जा सकता फिर उसमें विकल्प करने रोने से क्या फायदा है ? सेठ जी ने पूछा- तुझे यह जानकारी कहाँ से हुई और इस व्यक्ति को इतनी शान्ति कैसे है? नौकर ने बताया कि यहाँ पास में ही जंगल है, वहाँ एक साधु रहते हैं। उनके सत्संग में हम लोग जाते हैं। उन्होंने बताया है कि इस शरीर में चैतन्य तत्व भगवान आत्मा अजर अमर अविनाशी है। जो ब्रह्म स्वरूपी परमात्मा है और यह सब शरीरादि संयोग छूटने वाले, गलने, विलाने वाले हैं तथा इन सबका जिस समय जैसा होना है वह अटल है, उसे कोई टाल नहीं सकता। एक दिन इसी चर्चा में पूछने पर उन्होंने यह घटना होना बताया था जो सामने घटित हो रही है इसीलिए यह व्यक्ति शान्त है। सेठ जी ने कहा -यह तो अकर्मण्यता है । अपना पुरूषार्थ तो करना चाहिए फिर जो होना हो, हो। नौकर ने कहा कि सेठ जी आत्मा का पर में कोई पुरूषार्थ नहीं है। आत्मा अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में रहे-यही उसका पुरूषार्थ है और जो कुछ जैसा हो रहा है। उसे समता शांति से ज्ञायक रहकर देखें यह उसका ज्ञानीपना है। पर