Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 39
________________ [मालारोहण जी गाथा क्रं. ५ ] [ ५६ मात्र ज्ञाता दृष्टा है पर अपने स्वरूप का बोध न होने. वस्त के स्वरूप को न जानने के कारण अज्ञानी पर द्रव्य का कर्ता बनता है। जीव किसी का कुछ कर ही नहीं सकता, वह तो जैसा कर्मोदय परिणमन चल रहा है वही हो रहा है, होता है, और होगा। जीव का पर में कुछ करने का सामर्थ्य ही नहीं हैं और न उसके पुरूषार्थ से पर में कुछ होता, हाँ स्वयं का स्वयं में पुरूषार्थ करे इसके लिए स्वतंत्र है और उसका पुरूषार्थ एक मात्र ज्ञायक ज्ञान स्वभाव में रहना ही है इसके अतिरिक्त तो कोई कुछ कर ही नहीं सकता। संसारी अज्ञानी जीव जिसे अपना पुरूषार्थ मानता है वह उसका अज्ञान भाव का कर्तृत्व का अहंकार है जो बंधन का कारण है। अध्यात्म अमृत कलश में कहा है कलश १९४ - अज्ञान दशा में जीव अपने रागादिका अज्ञान भावका कर्तातोपर वह शरीरादि पर पर्याय का कर्ता अज्ञान दशा में भी नहीं है, वह अपने को पर का कर्ता मानता है यही उसकी अज्ञानदशा है। प्रश्न-शान, अज्ञान दशा में जीव में क्या अन्तर पड़ता है? समाधान-अज्ञान दशा में स्वभाव का बोध उसे नहीं होता अत: पर पदार्थ के संचय में, उसके निर्माण में, वह होता तो निमित्त मात्र है पर अपने को पर का कर्ता मान लेता है, यह मान्यता ही उसका भ्रम है और भ्रम के कारण ही वह दु:खी है। वह दु:खी इसीलिए होता है कि अपनी गलत मान्यता में पर को अपने अनुकूल बनाना चाहता है परन्तु पर द्रव्य पर जीव तो स्वयं अपनी परिणति के अनुरूप परिणमता है इसकी इच्छानुसार परिणमन नहीं करता, तब यह अपनी इच्छानुकूल पर परिणमन के अभाव में स्वयं दु:खी होता है। इसी प्रकार पर में अपना कर्तृत्व देखकर जब पर की निमित्तता में भी अपनी स्थिति, अपनी इच्छानुसार नहीं पाता तब उसका दोष पर को देता है और स्वयं दु:खी होता है। ज्ञानी की स्थिति इसके विपरीत है वह जानता है कि पर द्रव्य अपने द्रव्य की योग्यतानुसार तथा अपनी पर्यायधारा के अनुसार, आने वाले परिणमन के अनुसार ही परिणमन करेगा, अत: द:खी नहीं होता, इसी प्रकार मेरा परिणमन पर के आधीन नहीं है। संसारी दशा में पूर्व कर्मोदय के निमित्त को पाकर अपनी पर्यायधारा के अनुसार आने वाले परिणमन के अनुकूल ही मेरा परिणमन होगा, मेरी मात्र इच्छा के अनुसार नहीं होगा, ऐसा जानकर दु:खी नहीं होता यही उसके तत्व ज्ञान का फल है। प्रश्न -ज्ञानी और अज्ञानी दोनों को पूर्व कर्म बन्धोदय जन्य विषयादि रोगों की पीड़ा बराबर ही भोगना पड़ती है बाहर से दोनों की स्थिति देखने में एक सी लगती है फिर इनमें अन्तर क्या है? समाधान - भोगते दोनों हैं पर अज्ञानी कर्मोदय जन्य स्थिति से भिन्न जो अकर्म स्वरूप आत्मा है ऐसे अपने स्वरूप को नहीं जानता अत: उसे तन्मय होकर भोगता है, उसमें उसे आत्मबुद्धि है अत: दु:खी होता है, इसे ही कर्म दंड का भोगना कहते हैं। इसके विपरीत ज्ञानी पुरूष अपने ज्ञान स्वरूप का ज्ञायक है और कर्म के स्वरूप का ज्ञायक है तथा कर्म के उदय और उसके फल का भी ज्ञायक है, कर्ता भोक्ता नहीं है वह उसे अपने से भिन्न नैमित्तिक भाव जानकर उससे तन्मय नहीं होता क्योंकि तन्मयता को ही भोगना कहते हैं, अत: अज्ञानी, कर्ता, भोक्ता बना है, ज्ञानी, अकर्ता, अभोक्ता, अबन्ध मात्र ज्ञायक है। प्रश्न- यदि कोई ऐसा सुनकर उन्मत्त हो जाये कि ज्ञानी, अकर्ता-अभोक्ता अबन्ध मात्र शायक है, कैसा भी रहे कुछ भी करे, तत्व की चर्चा सुनकर अपने को सम्यग्दृष्टि मानने लगे और स्वच्छन्दता बरते, संयम सदाचार भी छोड़ दे तो क्या होगा? समाधान - यह चर्चा सम्यग्दृष्टि ज्ञानी की है और ज्ञानी सम्यग्दृष्टि बनने के लिए है, इसे सुनकर धर्म का बहुमान जागे, भेदज्ञान पूर्वक शरीर से भिन्न अपने आत्म स्वरूप की अनुभूति श्रद्धान करे तो उसका भला हो, इस चर्चा को सुनकर पढ़कर कोई स्वच्छंदता बरते, स्व पर का भेदज्ञान न करे अपने आपको सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मानने लगे तो वह सम्यक्त्व शून्य अभिमानी नरक निगोद जावेगा, कर्तृत्व का अहंकार. राग की रुचि, कर्म बंधन के कारण हैं, धर्म का मार्ग एकान्त पक्ष नहीं है, सम्यग्दर्शन से हीन मिथ्या दृष्टि हर दशा में पापी ही है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी होने के बाद कोई स्वच्छन्द नहीं होता वह

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