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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ३ ]
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समाधान-तत्व को समझने का मूल आधार है- जिज्ञासा, वस्तु स्वरूप को समझने की तीव्र लगन, रूचि होना । जैसे-धन का अर्थी चौबीस घंटे खातेपीते, सोते, चलते-फिरते एक ही लगन रहती है कि धन कैसे प्राप्त हो?
जैसे विद्यार्थी को पढ़ने की लगन रूचि होती है, इसी प्रकार जिसे अपने आत्म कल्याण की रूचि हो तो वैसे योग-निमित्त मिलते ही हैं। जैसे महावीर के जीव को सिंह की पर्याय में यह क्या है? वस्तु स्वरूप समझने की जिज्ञासा पैदा हुई तो चारण ऋद्धि धारी मुनिराज सामने आये। इसके लिए निम्न आठ उपाय हैं।
(१) सत्संग- ज्ञानी सद्गुरूओं का, धर्मी जीवों का सत्संग करना।
(२) स्वाध्याय- सत्शास्त्रों को पढ़ना-सुनना और अपने आपको देखना, स्व का अध्ययन करना। इसके दो सूत्र हैं
(0) हम कहां-जहां हमारा उपयोग ।
(I) हम कैसे-जैसे हमारे भाव ॥ (३) श्रवण-जो बिन सुने सयानों होय,तो गुल सेवा करेन कोय। सद्गुरूओं की वाणी सुनना, तत्व के स्वरूप को समझना और उसका निर्णय करके धारण करना।
(४) मनन-परमात्मतत्व का युक्ति-प्रतियुक्तियों से चिंतवन करना स्व-पर का विचार करना मनन है।
(५) विवेक- सत्-असत् को जानना, हिताहित का विचार निर्णय करना।
(६) वैराग्य- संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होना।
(७) मुमुक्षता- मुक्त होने की तीव्र भावना, संसार के जन्म-मरण के चक्कर से छूटने की तीव्र उत्कण्ठा होना।
(८) तत्व पदार्थ संशोधन- तत्व क्या है ? पदार्थ क्या है ? मेरा स्वरूप क्या है ? संसार का स्वरूप क्या है ? जीव अजीव का संबंध कैसा है?
इसका चिन्तवन पूर्वक निर्णय करना । इन उपायों के माध्यम से जो अपनी खोज में लगा रहता है उसे साध्य की सिद्धि होती ही है। शद्ध स्वरूप का अवलोकन, शुद्ध स्वरूप का प्रत्यक्ष जानपना, शुद्ध स्वरूप का आचरण, ऐसे करण करने से साध्य की सिद्धि अर्थात्-सकल कर्म क्षय, लक्षण मोक्ष की प्राप्ति होती है। (समयसार कलश १९) प्रश्न - इन उपायों को करते हुए भी साध्य की सिद्धि नहीं होती
इसका कारण क्या है? समाधान - साध्य की सिद्धि नहीं होने का कारण-लक्ष्य और रूचि की विपरीतता।
(१) लक्ष्य की विपरीतता - हमें कहाँ जाना है ? हम क्या चाहते हैं? इसका कोई निर्णय न होना। जैसे एक व्यक्ति हाथ में बैग लिए-बस स्टेंड पर सब बस वालों से पूछता फिर रहा था कि यह बस कहाँ जायेगी, कब जावेगी, कब पहुंचेगी, इसका किराया क्या लगेगा? सुबह से शाम हो गई- एक बस वाले ने पूछा कि भाई तुम्हें कहां जाना है? क्या होना है उसने कहा इसका तो मुझे पता ही नहीं है। जब तक यह लक्ष्य निर्धारित नहीं होगा तो हम बाहर से कितनी ही उठा पटक करते रहें-उसका क्या लाभ मिलेगा? चर्चा आत्मा परमात्मा की करें और लक्ष्य-धन-विषय भोगादि का होवे- तो क्या काम बनेगा? जैसे चील आकाश में कितने ऊपर उड़ जाती है पर उसकी दृष्टि लक्ष्य गंदी चीज पर ही रहता है उसे देखते ही वह झपट्टा मारकर नीचे आ जाती है। जैसे विद्यार्थी का लक्ष्य डाक्टर या इंजीनियर बनने का होता है- तो वह उस तरह के प्रयास करके बनता है। हमारा लक्ष्य धन हो और धर्म की चर्चा करें-लक्ष्य शारीरिक-विषय पूर्ति हो और आत्मा की चर्चा करें-यह तो सब विपरीत ही है।
(२) रूचि की विपरीतता-ऊपर से सब निर्णय हो- तद्रूप आचरण भी हो- पर आंतरिक भावना न हो, यह रूचि की विपरीतता है और रूचि अनुगामी पुरूषार्थ होता है। ऊपर से सदाचरण हो-ज्ञान आदि चर्चा भी करते रहें-पर भीतर संसारी कामना-वासना हो तो वह हमारे ज्ञान को साधना को