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[मालारोहण जी
अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति । इस कर्म बंध के कारण
१. योग वक्रता - मन वचन काय की कुटिलता और अन्यथा प्रवृत्ति । २. विसंवाद - व्यर्थ उठा पटक निष्प्रयोजन प्रवृत्ति करना यह अशुभ नाम कर्म बन्ध का कारण है।
सरल प्रवृत्ति - मन, वचन, काय की सरल प्रवृत्ति-शुभ योग; यह शुभ नामकर्म बंध के कारण हैं। नाम कर्म की उत्कृष्ट स्थिति-२० कोड़ा कोड़ी सागर है, जघन्य स्थिति आठ मुहूर्त है।
६- आयु- यह काठ के यंत्र (जेलखाना) रूप जीव को रखता है। इसके उत्तर भेद चार हैं- नरकायु, तिर्यंचायु, देवायु, मनुष्यायु। आयु कर्म बंध के कारण - १. नरकायु - बहु आरम्भ, बहु परिग्रह । २. तियंचायु - मायाचारी । ३. मनुध्यायु - अल्पारंभ, अल्पपरिग्रह, मृदु स्वभाव | ४. देवायु- सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा, बाल तप, सम्यक्त्व | आयु कर्म की बंध स्थिति उत्कृष्ट - ३३ सागर, जघन्य - अन्तर्मुहूर्त है ।
७- गोत्र - यह कुम्भकार जैसा छोटा-बड़ा, नीच ऊँच गोत्र बनाता है। इसके उत्तर भेद दो हैं- उच्च गोत्र, नीच गोत्र ।
गोत्र कर्मबंध के कारण - उच्च गोत्र - आत्मनिन्दा, पर प्रसंशा, अपने गुण ढांकना, पर गुण प्रकाश, विनीत वृत्ति निरभिमानी ।
नीच गोत्र - परनिन्दा, आत्म प्रसंशा, सद्गुणोच्छादन (पर के सद्गुणों को ढांकना), असदोद्भावन (पर के अवगुणों को उघाड़ना) ।
गोत्र कर्म बंध की उत्कृष्ट स्थिति २० कोड़ा कोडी सागर है, जघन्य स्थिति ८ र्मुहूर्त है ।
८- वेदनीय - यह शहद लपेटी तलवार की धार जैसा काम करता है। इसके उत्तर भेद दो हैं-साता वेदनीय, असातावेदनीय ।
इस कर्म बंध के कारण
१. सातावेदनीय - भूतानुकम्पा (समस्त जीवों पर दया भाव ), व्रती
गाथा क्रं. ४ ]
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अनुकम्पा, दान, सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा, बालतप, क्षान्ति (क्षमाभाव शान्त परिणाम ), शौच (संतोष वृत्ति) ।
२. असातावेदनीय - दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन (रोना), बध (प्राणों का वियोग करना), परिदेवन (करूणा जनक विलाप करना), वेदनीय कर्म बंध की उत्कृष्ट स्थिति३० कोड़ा कोडी सागर है, जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त है।
(२) भाव कर्म मोह-राग-द्वेष आदि विभावों को भाव कर्म कहते हैं, यह अन्तःकरण में होने वाले परिणाम हैं, जिनमें जीव एकमेक तन्मय होता है, जिनसे द्रव्य कर्म बंधते हैं। द्रव्य कर्म के उदय से भाव कर्म होते हैं, भाव कर्म के होने से द्रव्य कर्म बंधते हैं। ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबन्ध है और यही जीव के संसार परिभ्रमण का कारण है।
(३) नो कर्म - शरीरादि संयोगी पदार्थ नो कर्म कहलाते हैं। शरीर के साथ जीव का एक क्षेत्रावगाह संश्लेष सम्बन्ध अर्थात् एकमेक मिला हुआ हर पर्याय हर शरीर में रहता है। जब तक जीव और कर्म का संयोग रहेगा तब तक पूर्णमुक्ति नहीं होती। इन कर्मों का प्रकृति बंध, प्रदेश बंध, स्थिति बंध और अनुभाग बंध, यह चार प्रकार का बंध होता है। जिस जीव के साथ जैसे कर्मों का जितने समय का बंध होता है, उतने समय तक उसे उसी रूप में रहना पड़ता है। इन कर्मों की फल दान शक्ति अनुभाग बंध भी बड़ा विचित्र है पुण्य और पाप रूप दो प्रकार के होते हैं।
- गुड़, खांड़, शकर, अमृत रूप होता है।
पुण्य का फल पाप का फल
निम्ब, कांजीर, विष, हलाहल रूप होता है।
जीव के एक समय के विभाव परिणमन से असंख्यात कर्मों का आश्रव बंध होता है। जब तक जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि रहता है तब तक निरन्तर कर्मों का आश्रव बंध होता रहता है और एक समय के परिणाम से ही सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर की स्थिति तक का बंध होता है। (विशेष जानकारी गोम्मटसार, तत्वार्थ सूत्र ग्रंथ से करें)