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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ४ ]
आत्मा का अनादि से अन्य वस्तु भूत मोह के साथ संयोग होने से आत्मा के उपयोग का मिथ्यादर्शन अज्ञान और अविरति के भेद से तीन प्रकार का परिणाम विकार है। उपयोग का वह परिणाम विकार स्फटिक की स्वच्छता के परिणाम विकार की भांति पर के कारण (पर की उपाधि से) उत्पन्न होता दिखाई देता है।
यद्यपि परमार्थ से तो उपयोग शुद्ध निरंजन अनादि निधन वस्तु के सर्वस्यभूत चैतन्य मात्र भावपने से एक प्रकार का है तथापि अशुद्धपने अनेक भावना को प्राप्त होता हुआ तीन प्रकार का होकर स्वयं अज्ञानी होता हुआ कर्तृत्व को प्राप्त विकार रूप परिणमित होकर जिस जिस भाव को अपना करता है, उस उस भाव का वह उपयोग कर्ता होता है।
आत्मा जो अज्ञान रूप परिणमित होता है, किसी के साथ ममत्व करता है, किसी के साथ राग करता है और किसी के साथ द्वेष करता है.उन भावों का स्वयं कर्ता होता है। उन भावों के निमित्त मात्र होने पर पुदगल द्रव्य स्वयं अपने भाव से कर्म रूप परिणमित होता है ऐसा परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव मात्र है। कर्ता तो दोनों अपने अपने भाव के हैं यह निश्चय है। इस प्रकार इन मिथ्यात्व मद राग द्वेष भावों को छोड़ने तोड़ने का प्रयास करने वाला सम्यग्दृष्टि साधक है। प्रश्न - यह मिथ्यात्व मद, मोह, रागादि भाव कैसे और कब छूटते हैं
इसका उपाय बताइये? समाधान - दृष्टि का विषय द्रव्य स्वभाव है उसमें तो अशद्धता की उत्पत्ति ही नहीं है। समकिती को किसी एक भी अपेक्षा से अनन्त संसार का कारण रूप मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय का बंध नहीं होता, परन्तु इस पर से कोई यह मान लेवे कि उसे तनिक भी विभाव या बंध ही नहीं होते तो वह एकान्त है। सम्यग्दृष्टि को अन्तर शुद्ध स्वरूप की दृष्टि और स्वानुभव होने पर भी अभी आसक्ति शेष है जो उसे दु:ख रूप लगती है। रूचि और दृष्टि की अपेक्षा से भगवान आत्मा तो आनन्द स्वरूप अमृत का सागर है। जिसके नमूने के रूप में जो समकिती को वेदन वर्तता है उसकी तुलना में शुभ या
अशुभ दोनों राग दुःख रूप लगते हैं वे विष और काले नाग तुल्य प्रतीत होते हैं इसीलिये सम्यग्दृष्टि इनसे छूटने- हटने बचने का प्रयास करता है। जबकि अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को निरन्तर इन्हीं का रस आता है और वह इनमें ही सन्तुष्ट रहता है जहाँ मोही मनुष्य ऐसे मनोरथ करता है कि मैं कुटुम्ब और रिश्तेदारों में अग्रणी होऊँ, मेरे धन, घर और पुत्र परिवार की अभिवृद्धि हो तथा मैं अपने परिवार को सर्वांगीण भरा पूरा छोड़कर मरूँ। वहीं गृहस्थाश्रम में रहता हुआ धर्मात्मा आत्मा की प्रतीति पूर्वक पूर्णता के लक्ष्य से ऐसी भावना भाता है कि मैं कब सर्व सम्बंध से निवृत्त होऊं । मैं कब सर्व आरम्भ-परिग्रह का त्याग करके निग्रंथ साधु होऊं। मैं अपूर्व समाधि मरण को प्राप्त करूँ, इसी भावना व लक्ष्य से इन भावों से छूट जाता है। वैसे तारण स्वामी ने इसी गाथा में इसका उपाय बताया है कि संसार दुष्यं जे नर विरक्तं,ते समय शुद्धं जिन उक्त दिष्टं।
जो संसार के दु:खों से छूटना चाहते हैं वे जैसा जिनेन्द्र देव ने अपने शुद्धात्म तत्व को कहा है वैसा ही देखें अनुभव करें। इसी बात को समयसार कलश २१८ से २२० तक बताया है, पर से भिन्न हूँ ऐसा भेदज्ञान करना संसार चक्र से छूटने का यही एक मात्र रास्ता है, दु:ख से छूटने का अन्य कोई रास्ता नहीं है।
जैसे सत्ता स्वरूप एक जीव द्रव्य विद्यमान है। वैसे राग-द्वेष कोई द्रव्य नहीं, जीव की विभाव परिणति हैं। वही जीव जो अपने स्वभाव रूप परिणमे तो राग-द्वेष सर्वथा मिटे ऐसा होना सुगम है कुछ मुश्किल नहीं है। अशुद्ध परिणति मिटती है शुद्ध परिणति होती है।
कोई ऐसा मानता है कि जीव का स्वभाव राग-द्वेष रूप परिणमने का नहीं है. पर द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्म तथा शरीर भोग सामग्री बलात्कार जीव को राग-द्वेष रूप परिणमाते हैं सो ऐसा तो नहीं, जीव की विभावशक्ति जीव में है इसीलिए मिथ्यात्व के भ्रम रूप परिणमता हुआ राग द्वेष रूप जीव द्रव्य आप परिणमता है, पर द्रव्य का कुछ सहारा नहीं हैं। सो जीव द्रव्य का दोष है पुद्गल द्रव्य का दोष नहीं है। इससे छूटने का उपाय यह है कि मैं शुद्ध चिद्रूप,