Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 36
________________ ४९ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं.५ ] [ ५० भी मिली और वहाँ यह शल्य आ गई "ऐसा नहीं ऐसा होता" तो समझ लो भोगते हुये रहते हुये क्या दशा होती है। (३) निदानशल्य-"ऐसा करता या ऐसा करूँगा" कर्तृत्व का अहंकार, यह भूत भविष्य में ही घुमाता रहता है, वर्तमान में टिकने नहीं देता। यह शल्य हिंसादि पापों में प्रवृत्ति कराती है। मन सक्रिय और कठोर इसी के कारण रहता है। यह द्वेष की तीव्रता में विशेष सक्रिय रहती है, जैसे-सामने कोई बात या कार्य आया वहाँ भीतर से यह अहंकार बोलता है कि "मैं होता तो ऐसा करता या यह हो गया पर अब ऐसा करूँगा" यह निदान शल्य है। जब तक कोई सी भी शल्य रहेगी, जीव अपने में स्वस्थ्य नहीं रह सकता अपनी सुरत नहीं रख सकता तो जो नर(सम्यग्दृष्टि) संसार से छूटना चाहता है, वह इन तीनों शल्यों को अपने चित्त से बिल्कुल निकाल दे (निरोध) बन्द कर दे, पैदा ही न होने दे , कैसे निकाल दे? "जिन उक्त वानी हिदैय चेतयत्वं" जिनेन्द्र परमात्मा के द्वारा कही हुई वाणी का अपने हृदय में हमेशा चिन्तवन करे । अब जिनेन्द्र परमात्मा ने क्या कहा है, यह पूछने पर सद्गुरू कहते हैं कि पहली बात काया प्रमानं त्वं ब्रह्मरूप, निरंजन चेतन लप्यनेत्वं । इस शरीर के प्रमाण, शरीर से भिन्न, तुम ब्रह्म स्वरूपी, निरंजन चेतन लक्षण भगवान आत्मा हो, ऐसा भेदज्ञान करना और दूसरी बात जिनवाणी का सार तत्व निर्णय यह है कि त्रिलोक की त्रिकालवर्ती पर्याय क्रमबद्ध निश्चित अटल है। जिस समय, जिस जीव का, जिस द्रव्य का, जैसा जो कुछ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा है और होगा, उसे कोई भी टाल फेर बदल सकता नहीं है। इस बात का दृढ़ श्रद्धान अटल विश्वास करने से ये तीनों शल्ये विला जाती हैं। यही भेदज्ञान तत्वनिर्णय करने पर मिथ्यात्व, मद, मोह रागादि गलते विलाते हैं। साधक और क्या करता है? मिथ्यात देवं गुरू धर्म दूर, सद्धं सरूपं तत्वार्थ सार्थ । मिथ्यादेव, मिथ्यागुरू, मिथ्याधर्म से दूर रहता है। समाधान-(१) मिथ्यादेव - झूठे देव को मिथ्या देव कहते हैं। मिथ्यादेव के दो भेद हैं, कुदेव - अदेव । कुदेव-देवगति के देवों को देव मानना यह कुदेव कहे जाते हैं क्योंकि इनमें देवत्वपना नहीं है। अदेव - चित्र, लेप, पाषाण, धातु आदि की मूर्ति को देव मानना यह अदेव है क्योंकि चेतनपना ही नहीं हैं तो देवत्वपना कैसे होगा? देव अर्थात् परमात्मा, इष्ट, भगवान, जो जीव को कल्याणकारी उद्धार कर्ता मुक्ति देने वाले को देव कहते हैं। सच्चे देव का स्वरूप इस प्रकार है सच्चे देव-वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशी को कहते हैं। व्यवहार से - सच्चे देव अरहंत सिद्ध परमात्मा होते हैं। निश्चय से - निज शुद्धात्मा ही सच्चा देव है। (२) मिथ्यागुरू-झूठे गुरू को मिथ्यागुरू कहते हैं । मिथ्यागुरू के भी दो भेद, कुगुरू-अगुरू होते हैं। कुगुल- जो अज्ञानी मिथ्यादृष्टि किसी प्रकार का रूप भेष बनाकर संसारी प्रपंच, शुभाशुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति करते कराते हैं, पुण्य को धर्म बताते हैं, वह कुगुरू हैं। अगुरू- जिनमें कोई गुरूता नहीं है जो स्वयं संसार में फंसे हैं, जैसे माता-पिता, पत्नी-पति, मित्र बंधु, शिक्षा गुरू इनकी बातें मानना जो विषय कषाय में फंसाते हैं, अगुरू हैं। सच्चे गुरू-हित का मार्ग बताने वाले धर्म का उपदेश देने वाले को गुरू कहते हैं। सच्चे गुरू वीतरागी निर्ग्रन्थ सम्यग्दृष्टि साधु होते हैं जो स्वयं तरते हैं, औरों को तरने का मार्ग बताते हैं। (३) मिथ्याधर्म - क्रियाकांड पुण्य-पाप को धर्म मानना मिथ्या धर्म है। मिथ्या धर्म के भी दो भेद हैं - कुधर्म, अधर्म ।

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