Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 33
________________ ४३ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ४ ] [ ४४ सम्यग्दृष्टि को राग या दु:ख नहीं, ऐसा तो दृष्टि की प्रधानता से कहा है परन्तु पर्याय में जितना आनन्द है उसे भी ज्ञान जानता है और जितना राग है उतना दुःख भी साधक को है। ज्ञान यह भी जानता है पर्याय में राग है दु:ख है, उसे जो नहीं जानता उसके तो धारणा ज्ञान में ही भूल है। सम्यग्दृष्टि को दष्टि की महिमा बल बतलाने के लिये कहा है कि उसे आश्रव नहीं परन्तु जो आश्रव सर्वथा नहीं तो मुक्ति होनी चाहिये। (३) अविरति- अपने शुद्धात्म स्वरूप में रति न होना, पाप विषय कषाय शरीरादि में रत रहना अविरति भाव है। असंयम, अविरत भाव यही कर्तृत्व भोक्तृत्व भाव हैं और यह मद के अन्तर्गत होते हैं। जीव का शरीर से जुड़े रहना ही मद है, इसी अविरति के कारण चारित्र नहीं होता। सम्यग्दर्शन का बाधक मिथ्यात्व भाव है, ज्ञान का बाधक कारण अज्ञान भाव है, चारित्र का बाधक कारण अविरति भाव है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र का होना मोक्षमार्ग है इनके होने पर ये तीनों भाव विला जाते हैं। इसके लिये पांच पापों से, पांच इन्द्रियों के विषयों से, मन की चंचलता से कषायों की प्रवृति से हटना बचना आवश्यक है क्योंकि द्रव्य संयम के बिना भाव संयम नहीं होता। जब तक यह सब संयोग संबंध रहे, तब तक अविरति भाव से छूटना मुश्किल है। अपने सत्स्वरूप का अतीन्द्रिय आनन्द आवे, मुक्ति के परमानन्द का बहुमान उत्साह होवे, अपने परमात्म पद का स्वाभिमान जागे, मैं ब्रह्म स्वरूपी शुद्धात्मा हूँ। स्वयं सिद्ध परमात्मा हूँ इतनी दृढ़ता निर्भयता निस्पृह वृत्ति से आगे बढ़े, वीतरागी निग्रंथ साधु पद होवे तब इनसे छूटने का क्रम शुरू होता है और पूर्ण शुद्ध सिद्धपद होने पर पूर्ण मुक्त परमात्मा हो जाता है यही साधक की साधना का क्रम है। श्री तारणस्वामी तो स्वयं निश्चय व्यवहार के समन्वयवादी साधक थे उनके अपने जीवन साधना का अनुभव इन गाथाओं में दिया है जो साधक इस रूप आचरण करेगा वह अपने पूर्ण शुद्ध मुक्त परमात्म पद को अपने मे प्रगट करेगा संसार के दु:खों से छूट जायेगा। सम्यग्दृष्टि जीव सकल कर्मों का क्षय कर अतीन्द्रिय सुख लक्षण-मोक्ष को प्राप्त होता है. राग-द्वेष, मोह रूप अशुद्ध परिणति से भिन्न होता हुआ द्रव्य के स्वभाव गुण रूप निर्मल धारा प्रवाह रूप परिणमन शील चेतना गुण उस रूप जो अतीन्द्रिय सुख उसके प्रवाह से जो तन्मय है सर्व अशुद्ध पना मिटने से शुद्धपना होता है, शुद्ध चिद्रूप का अनुभव मोक्षमार्ग है। (समयसार कलश ४९१) मोक्ष का उपाय हर जीव कर सकता है. ग्रहस्थ के व्यापार धन्धे में उलझा हुआ मानव भी मुक्ति का साधन कर सकता है, यह बात समझनी चाहिये कि मोक्ष आत्मा का शुद्ध स्वरूप है, वह तो स्वयं आप ही है, इस पर जो कर्म का आवरण है उसको दूर करना है, उसका साधन भी एक मात्र अपने ही आत्मीक स्वभाव का दर्शन या मनन है। सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा के भीतर भेदविज्ञान की कला प्रगट हो जाती है। जिसके प्रभाव से वह सदा ही अपने आत्मा को सर्वजाल से निराला वीतराग विज्ञान मय शुद्ध सिद्ध के समान श्रद्धान करता है, जानता है तथा उसका आचरण भी कर सकता है, जिसकी रूचि हो जाती है उस तरफ चित्त स्वयमेव स्थिर हो जाता है। आत्मस्थिरता भी करने की योग्यता अविरत सम्यक्त्वी ग्रहस्थ को हो जाती है, वह जब चाहे तब सिद्ध के समान अपनी आत्मा का दर्शन कर सकता है। (योगसार दोहा १८ ब्र. शीतल प्रसादजी कृत टीका) ज्ञानी विषयों का सेवन करते हुये विषय सेवन के फल को नहीं भोगता है। वह तत्व ज्ञान की विभूति एक वैराग्य के बल से सेवते हुये भी सेवनेवाला नहीं हैं, समभाव से कर्म का फल भोगने पर कर्म की निर्जरा बहत होती है. बन्ध अल्प होता है इसीलिये सम्यग्दृष्टि ग्रहस्थ निर्वाण (मोक्ष) का पथिक होकर संसार घटाता है। उसकी दृष्टि स्वतंत्रता पर रहती है। संसार से उदासीन है। प्रयोजन के अनुकूल अर्थ व काम परूषार्थ साधता है व व्यवहार धर्म पालता है ; परन्तु उन सबसे वैरागी है। प्रेमी मात्र तो अपने आत्मानुभव का है। इससे वह शीघ्र ही मुक्ति पाने की योग्यता बढा लेता है। (समयसार कलश १३५ टीका ब्र. शीतलप्रसाद)

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