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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.३]
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प्रति प्रेम स्नेह उमड़ आया। उस डाकू के कोई भी संतान नहीं थी, उसने उसे अपने पुत्र रूप में रखने का निश्चय कर लिया।
इधर सेठ-सेठानी की बड़ी दयनीय दशा हो गई, एक ही बालक और उसका अपहरण हो जाना, उनके प्राण छटपटाने लगे। उन्होंने बालक की खोज के लिए सारे प्रयत्न किये, राज्य शासन ने भी काफी प्रयास किया। सेठ ने अपनी सारी सम्पत्ति देने की घोषणा कर दी कि बालक के बदले अपनी सारी सम्पत्ति देने को तैयार हूँ, लेकिन जब डाकुओं के सरदार ने अपना निर्णय कर लिया था तो वह बालक को कैसे देता ? ऐसी सम्पत्ति तो वह रोज ही लूटता-बांटता था । पुत्र के वियोग में सेठजी की स्थिति खराब हो गई, खोजते-खोजते दो वर्ष बाद उनकी मृत्यु हो गई।
इधर बालक का अपहरण, उधर पति की मृत्यु से उस बालक की मां की क्या स्थिति हई? यह तो अकथनीय है। सेठानी मां ने भी बहुत प्रयास किया, पर कोई पता नहीं मिला, मां भी हताश हो गई। पर मां विवेकवान थी. उसने सोचा पति की तो मृत्यु हो गई, अब वह तो लौटकर आने वाला ही नहीं है परन्तु मेरे बेटे का अपहरण हुआ है, वह मरा नहीं है, कभी न कभी तो मिल सकता है, लौट कर आ सकता है। इस आशा से उसने एक व्यवस्था बनाई कि उस गाँव में बाहर से आने-जाने वाला कोई भी व्यक्ति हो - उस मां के यहाँ जलपान करे, विश्राम करे और फिर जहाँ जाना हो, जावे। इससे उसके दो काम सधते थे कि सम्पत्ति का सदुपयोग होता था और बालक की खोज का भी काम चलता रहता था इससे समय भी सहजता से निकलता था, इस व्यवस्था से चारों तरफ उसकी प्रभावना होने लगी,लोगों की उसके प्रति बड़ी सहानुभूति
और श्रद्धा होने लगी और उसका जीवन भी ऐसे ही सत्कार्य में बीतने लगा। इस प्रकार २० वर्ष हो गये, मां वृद्ध हो गई पर उसके इस कार्य में शिथिलता नहीं आई। अनायास एक दिन एक थानेदार चार सिपाहियों सहित एक डाकू को पकड़कर लाया और जैसी व्यवस्था थी, वह उस मां के यहाँ जलपान विश्राम करने के लिये ठहरा । सबने जलपान किया, बैठे। जैसा मां का काम था, भैया कहाँ से आ रहे हो, कहाँ जाना है? क्या हालचाल है? यह सब पूछा करती थी, वैसा ही उसने थानेदार से पूछा, थानेदार ने कहा-मां आजकल
डाकुओं का आतंक बहुत बढ़ गया है, हम उन्हीं को पकड़ने के लिये फिर रहे हैं। आज मुश्किल से यह एक डाकू पकड़ में आया है। मां ने डाकू की तरफ देखा, वह नौजवान, हथकड़ी बेड़ियों में जकड़ा हुआ, जिसके कपड़े फट रहे थे और हालत भी बड़ी अस्त-व्यस्त हो रही थी। अपने घुटनों में सिर दिये चुपचाप बैठा यह सब सुन रहा था। पर जैसे ही उस मां ने डाकू को देखा-मां की आंखों से आसुओं की धारा बहने लगी। थानेदार ने देखा-पूछा मां त क्यों रो रही है? बता तेरे को क्या तकलीफ है? हमने तेरा नमक खाया है,तू हम सबकी इतनी नि:स्वार्थ-सेवा कर रही है, हम तुझे दु:खी नहीं देख सकते, बता क्या बात है? हम अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे, पर तुझे कोई तकलीफ नहीं होने देंगे। मां ने कहा-बेटा क्या बताऊँ,मैं बड़ी दुखयारी हूँ अपने दुःख को दबाये बैठी रहती थी। आज इस डाक को देखकर मुझे अपने बेटे की याद आ गई कि मेरा बेटा भी इतना बड़ा हो गया होगा और इसकी सूरत शक्ल और माथे के यह निशान को देखकर ऐसा लगता है कि हो न हो, यही मेरा बेटा है क्योंकि पाँच वर्ष की उम्र में मेरे बेटे का अपहरण हो गया था आज बीस वर्ष हो गये हैं। मैं उसी की प्रतीक्षा में अपनी जिन्दगी गुजार रही हूँ। उसके वियोग में दो वर्ष बाद ही पति का स्वर्गवास हो गया। मैं दुखयारी अपने पुत्र मिलन की आशा में ही आज तक जिन्दा हूँ। थानेदार ने कहा-मां तू इतनी अधीर मत हो, ऐसा मत कह कि यह डाकू मेरा बेटा है, वरना हम झंझट में पड़ जायेंगे क्योंकि अगर यह डाकू कहने लगे कि मैं ही तेरा बेटा हूँ-तो हम क्या लक्ष्य या सबूत देंगे? तू अपनी सारी बातें बता, हम खोज करेंगे। अगर तेरा बेटा जिन्दा होगा तो हम जरूर तुझसे मिलायेंगे, हम यह वचन देते हैं। हमने तेरा नमक खाया है, हम उसे पूरा निभायेंगे। बता तेरे बेटे की कैसी हुलिया, सूरत, शक्ल है? जब यह चर्चा यहाँ चल रही थी तो उधर वह नौजवान डाक भी यह सब बातें सुन रहा था और उसे भी अपने बचपन की घटना और बीते दिन याद आ रहे थे। डाकूओं से उसे यह भी पता लग गया था कि वह इस डाकू सरदार का बेटा नहीं हैं. किसी सेठ का बेटा है पर अबोध अनभिज्ञ होने के कारण वह भी उनके साथ रहता, डाके डालना सीख गया था और अच्छा डाकू सरदार बन गया था। जब यह सब बातें उसने सुनी, तो उसे भी भीतर से सिहरन पैदा होने लगी। वह भी मां से मिलने के लिए तड़फने लगा। पर मजबूरी थी डाकू भेष में