Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 22
________________ २१ ] [मालारोहण जी गाथा क्रं. ३ ] [ २२ - अंतरंग भावना है इसे पक्का करो क्योंकि वैराग्य तीन तरह का होता। (१) मरघट का वैराग्य (२) मन्दिर का वैराग्य (३) अन्दर का वैराग्य (१) मरघट का वैराग्य - इसमें भी संसार असार लगने लगता है पर, घर पहुँचते-पहुँचते सब साफ हो जाता है। (२) मन्दिर का वैराग्य - तत्व चर्चा करने, धर्मोपदेश सुनने से ऐसा ही भाव होने लगता है कि संसार असार है पर मन्दिर से बाहर निकलते ही सब साफ हो जाता है। (३) अन्दर का वैराग्य -जो स्वयं की बुद्धि का निर्णय होता है-वह कल्याणकारी होता है और उस रूप चर्या भी होने लगती है। अब इस चर्चा में कौन सा वैराग्य आया है, वह समझ लो । एक तत्व चर्चा बुद्धि के विकाश के लिये होती है, एक तत्व चर्चा आत्मकल्याण के लिये होती है। जिज्ञासा भी दो प्रकार की होती है। (१) स्वयं के आचरण में लाने के लिये। (२) दूसरी सिद्धांत को समझने और दूसरों को बताने के लिए। इसमें अपना निर्णय कर लो क्योंकि श्री तारण स्वामी ने इसीलिये पहले विचार मत रखा है कि बुद्धिपूर्वक अपना यथार्थ निर्णय करना, इसी से अपना जीवन और भविष्य बनता है इसी का नाम मालारोहण है। अगर अपने को आत्मानुभूति, सम्यग्दर्शन करना है, मुक्त होना है तो सावधान तैयार हो जाओ, क्योंकि धर्म चर्चा का विषय नहीं है चर्या का विषय है। सम्यग्दर्शन मुक्ति मार्ग के निम्न साधन हैं। (१) प्रतिदिन मन्दिर जाने, स्वाध्याय, तत्व चर्चा करने और सामायिक ध्यान करने का संकल्प पूर्वक नियम होना चाहिए। (२) तत्व चर्चा में ज्ञानी सद्गुरूओं से विनम्रता पूर्वक यह पूछना चाहिए कि मैं कौन हूँ? संसार कैसा है? बंधन क्या है ? मोक्ष क्या है ? परमात्म तत्व का अनुभव कैसे हो सकता है ? मेरे साधन में क्या कमीं, क्या बाधाएँ हैं? उन बाधाओं को कैसे दूर किया जाये? तत्व समझ में क्यों नहीं आ रहा ? इनको समझने की कोशिश करना और निरन्तर ऐसा ही चिंतन अपने में चलते रहना चाहिये। (३) शरीरादि संयोग से उदासीन रहना, भेदज्ञान करना। - शरीर के आदर सत्कार, सुख बुद्धि और कल्पित नाम की कीर्ति एवं प्रतिष्ठा की चाह न होना। शरीर, मन, वाणी, से किसी भी प्राणी को किसी प्रकार कभी भी किंचित मात्र दु:ख न देना। शरीर, मन, वाणी की सरलता निष्कपट भाव रखना। जन्म-मरण वृद्धावस्था और रोग आदि में दुःख रूप दोष के कारणों का बार-बार विचार करना। शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि के अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति, घटना आदि के प्राप्त होने पर चित्त में सदैव समता का रहना। तत्व ज्ञान के अतिरिक्त किसी भी वस्तु की चाह न होना। संसारी मनुष्यों के बीच रहते हुये, किसी से द्वेष बुद्धि, बैर विरोध न होना। (४) प्रमाद नहीं करना, इसके १५ भेद हैं। चार विकथा - (राजकथा, चोर कथा, भोजनकथा, स्त्री कथा) चार कवाय- (क्रोध, मान, माया, लोभ) पांच इन्द्रिय - (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण)

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