Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 12
________________ गाथा क्रं.१ ] ॐ नमः सिद्धं श्रीमालारोहण जी मंगलाचरण नमहुँ सिद्ध परमात्मा, अपना सिद्ध स्वरूप । मंगलमय मंगलकरण, शाश्वत ब्रह्म अनूप । ज्ञानमात्र ध्रुव सिद्ध सम, सब आतम भगवान। जो जाने निज रूप को, पावे पद निर्वाण ॥ आतम गुण माला कही, सदगुरू तारण देव । महावीर की देशना, प्रगटी है स्वयमेव ।। शुद्धात्म तत्व का लक्ष्य है, है मुक्ति का भाव । वीतराग जिन धर्म का, फैले जगत प्रभाव ।। ज्ञानानंद-स्वभाव मय, रहँ सदा तिहँ काल । इसी भावना लक्ष्य से, लिखी आत्मगुण माल । करता हूँ (तत्वार्थ साध) उस प्रयोजन भूत तत्व की साधना के लिए। वह शुद्धात्म तत्व कैसा है (न्यानं मयं) ज्ञानमयी है (संमिक दर्सनेत्वं) सम्यक् दर्शन से परिपूर्ण (संमिक्त चरनं) सम्यग्चारित्र मयी (चैतन्य रूपं) चैतन्य स्वरूपी है। विशेषार्थ-परमात्म स्वरूप निज शुद्धात्म तत्व, जिसका पंच परमेष्ठी अनुभव करते हैं, जो शुद्धात्म तत्व सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र मयी चैतन्य स्वरूपी है यही त्रिकाली परम शुद्ध निज शद्धात्म तत्व मझे इष्ट और प्रयोजनीय है, इसी तत्व की साधना और प्राप्ति के लिए मैं हमेशा प्रणाम करता हूँ। ॐ शब्द शुद्ध आत्मा, ब्रह्म स्वरूप का वाचक है, इसकी अनुभूति पंच परमेष्ठी अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु करते हैं और इससे अपने परमात्म पद को पाते हैं। सात तत्व-जीव, अजीव, आश्रव,बंध,संवर, निर्जरा, मोक्ष इनमें एक मात्र जीव तत्व ही परमात्म स्वरूप का अर्थात्- मोक्ष का अधिकारी-सुख-शांति आनंद का भंडार-शाश्वत अविनाशी, चैतन्य, तत्व है। अनादि से यह अपने सत्स्वरूप को भूला अज्ञानी मिथ्यादृष्टि बना संसार में परिभ्रमण कर रहा है। अपने सत्स्वरूप का बोध-स्मरण होना ही तत्व का सार है और इसी की साधना से परमात्मपद मोक्ष की प्राप्ति होती है। सद्गुरू तारण स्वामी अपने सत्स्वरूप शुद्धात्म तत्व को ही इष्ट मानते हुए, इसी की साधना-आराधना करने के लिए, हमेशा इसी का स्मरण-ध्यान करते हुए-नमस्कार करते हैं। शुखात्म तत्व ही सम्यकदर्शन-सम्यक्झान-सम्यचारित्र मयी चैतन्य स्वरूपी है, यह रत्नत्रय ही देव है, यही इष्ट आराध्य है और इसकी साधना-आराधना करने वाले ही देव परमात्मा होते हैं। अध्यात्म साधक-मुक्ति की प्राप्ति के इच्छुक मुमुक्षु जीव को अपने ही इट शुखात्म तत्व की साधना-आराधना-प्रयोजनीय है। जब तक यह लक्ष्य और दृष्टि नहीं होगी तब तक संसार के जन्म-मरण से छुटकारा-मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। यहाँ कोई प्रश्न करता है कि देव स्वरूप जो अरिहन्त सिद्ध गाथा -१ मुक्ति को प्राप्त करने वाले साधक का लक्ष्य क्या होता है? वह अपना इष्ट किसे मानता है ? यह बात पहली गाथा में कही है - उवंकार वेदन्ति सुद्धात्म तत्वं, प्रनमामि नित्यं तत्वार्थ सार्धं । न्यानं मयं संमिक दर्सनेत्वं, संमिक्त चरनं चैतन्य रूपं ॥ शब्दार्थ - (उवंकार वेदंति) ॐकार स्वरूप पंच परमेष्ठी अनुभव करते हैं (सुद्धात्म तत्वं) शुद्धात्म तत्व का (प्रनमामि नित्यं) मैं हमेशा नमस्कार

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