Book Title: Malarohan
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Bramhanand Ashram

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Page 11
________________ भूमिका सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः। सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र की एकता ही मोक्षमार्ग है और पूर्णता मोक्ष है। अध्यात्मवाद का मूल उद्देश्य आत्मा के सत्स्वरूप का बोध करना तथा अज्ञान जनित जोजन्ममरण का संसार चक्र चल रहा है- इससे मुक्ति का उपाय मोक्ष प्राप्त करना है। प्रत्येक जीव सुख चाहता है-दु:ख से छूटना चाहता है, संसार में अज्ञानी को हमेशा दु:ख ही दु:ख हैं, क्योंकि वह परोन्मुखी दृष्टि होने से हमेशा पर का (शरीर संयोग-धन वैभवपरिवार का) ही विचार करता रहता है, इससे निरंतर चिन्तित, आकुल, व्याकुल, दु:खी रहता है। कर्तापना होने से संकल्प विकल्पों में उलझा रहता है, उसे अपना कोई होश ही नहीं होता। संसार में जीव को दो प्रकार के दु:ख होते हैं-१ संयोगी पर्यायी दु:ख - २ अज्ञान जनित आंतरिक दुःख और इन दोनों का निमित्त नैमित्तिक संबंध है। संसारी जीव संयोग जनितपर्यायी दु:खों को मिटाने का प्रयत्न करता है और वह कर्माधीन परिणमन है, जो अपने क्रम से बदलता रहता है और वह हमेशा आकुलित दु:खी रहता है। मूल में अज्ञानजनित दु:ख मिटे तो यह सब दुःख ही मिट जाये। श्री तारण स्वामी से भव्य जीवों ने यह प्रश्न किया कि यह अज्ञान जनित दु:ख कैसे मिटे? इसके लिए श्री गुरू ने यह विचार मत के तीन ग्रंथ- श्री मालारोहण, पंडितपूजा, कमल बत्तीसी-३२-३२ गाथाओं में लिपिबद्ध किए, जिनमें बुद्धि पूर्वक अपना निर्णय करने का निर्देश दिया है। श्रीमालारोहण ग्रंथ में बुद्धि पूर्वक निर्णय कराया है कि मैं कौन हूं? मैं कहां से आया हूं? मेरा स्वरूप क्या है? मुझे कहांजाना है? इसका यथार्थ निर्णय होना ही अध्यात्म दर्शन सम्यग्दर्शन है। हे भाई! एक बार तू स्वसम्मुख हो और निज स्वभाव को प्रतीति (अनुभूति) में लेकर श्रद्धा ज्ञान को सच्चा बना, तो तुझे सब सीधा सच्चा भासित होगा और तेरा मिथ्यात्व (विपरीत मान्यता) अज्ञान दूर हो जायेगा। उपयोग को अन्तरोन्मुख करके-मैं शुद्धात्मा हूं-ऐसा अनुभूति में आया कि अतीन्द्रिय आनंद के झरने झरने लगते हैं। यही सत्य सनातन धर्म तारणपंथ मुक्तिमार्ग है। गाथा क्रं.३ में स्पष्ट कहा है। इसके लिए क्या करना पड़ता है? इसके लिए निरंतर भेदज्ञान का अभ्यास करनाइस शरीरादिसे भिन्न मैं एक अखंड अविनाशी चेतन तत्व भगवान आत्मा हूं, यह शरीरादि (शरीर-संयोग-भाव) मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं। इसका अनुभूतियुत बोध होना ही अध्यात्म दर्शन (सम्यग्दर्शन) है। श्री गुरू तारण स्वामी के साथ सभीजैन अजैन भव्य जीवथे- उन्होंने प्रश्न किया कि धर्म क्या है क्योंकि धर्म के संबंध में बड़ी भ्रांतियां हैं ? श्री गुरू ने कहा "चेतना लक्षणो धर्मों"- अपने चैतन्य स्वरूप का अनुभव प्रमाण बोध ही धर्म है। इस धर्म की महिमा क्या है ? जे धर्म लीना गुण चेतनेत्वं ,गाथा क्रं.१६ सत्यधर्म की महिमा से वर्तमान-जीवन में सुख शांति आनंद और मुक्ति की प्राप्ति होती है। धर्म की साधना क्या है? अपनी मान्यता को मिटाना ही धर्म की साधना है। भगवान महावीर स्वामी के समवशरण में राजा श्रेणिक ने जो प्रश्न किए थे उनका आंखोंदेखा सब वर्णन इसमालारोहण जी ग्रंथ में किया है। उस समय भट्टारकी प्रथा में धर्म के नाम पर धंधा चन्दा-नीलामी बोली आदि बाह्य आडम्बर होते थे, रत्नत्रय की माला बिकती थी तथा अन्य भी अनेक अदेवादि की पूजा मान्यता को धर्म बताया जाता था। श्री गुरू ने सत्य धर्म क्या है ? इसका स्वरूप समस्त जगजीवों को बताया-जैसा जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा और बताया है, उसी सत्य धर्म का वीतराग भाव से आत्म कल्याण हेतु निरूपण किया है। जिन्हें धर्म की श्रद्धानहीं है- केवली परमात्मा जिनेन्द्र भगवान की वाणी की प्रतीति नहीं है- अन्तर में वैराग्य नहीं है, कषाय की मंदता भी नहीं है वे धर्म की चर्चा करें, गृहीत मिथ्यात्व का पोषण करें,धर्म प्रभावना का ढोंग करें-वहां जीवों का अहित ही होता है। यह मनुष्य भव अपना आत्म कल्याण करने के लिए मिला है. इसमें अपनी बुद्धि विवेक पूर्वक सत्यधर्म का निर्णय कर उस मार्ग पर चलें-तभी अपना भला होगा क्योंकि-जीव अकेला आया है-और अकेला जायेगा,जैसी करनी यहां करेगा-वैसा ही फल पायेगा,धर्म और कर्म में कोई किसी का साथी नहीं है। धर्मस्वच्छन्दता का नहीं स्वतंत्रता का मार्ग है। अपने जीवन में निर्मानता, निर्मोहिता, पवित्रता आना ही धर्म साधना है। ___स्वयं शुद्ध आनंदकन्द सच्चिदानंद भगवान आत्मा हूं ऐसी श्रद्धा सहित "अनुभव पूज्य है"- वही परम है, वही धर्म है, वही जगत का सार है वही भव से उद्धार करने वाला अध्यात्मदर्शन है। अज्ञानी बाह्य क्रिया में धर्म मानता है। पर के आलम्बन से अपना भला होना मानता है।यही संसार का कारण है।जो व्यवहार में ही संलग्न हैं, जिनका अभीगृहीत मिथ्यात्व नहीं छूटा, उनको आत्मस्वरूप की प्रतीति होना ही दुर्लभ है। आत्मा के अनुभव के बिना संसार का नाश नहीं होता। जिसे व्यवहार में पूजा-पाठ, दया, दान, व्रत-संयम करने के राग का रस है, इनसे धर्म या मुक्ति होना मानता है वह मिथ्यादृष्टि है। इससे मुक्त होने का सहज सरल उपाय श्री गुरू ने इस ग्रंथ में बताया है। 19

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