Book Title: Mahavira ka Swasthyashastra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

Previous | Next

Page 110
________________ ९६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र करेंगे ? कैसे साधना होगी ? स्वास्थ्य साधना का महत्वपूर्ण पक्ष है । स्वास्थ्य को साधना से सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता । स्वास्थ्य के लिए शरीररचना का ज्ञान जरूरी है | शरीर के सारे तंत्रों का ज्ञान होना चाहिए । नाड़ीतंत्र और अंतःस्रावी ग्रंथि तंत्र के कार्य का ज्ञान होना चाहिए । उनका कार्य कैसे सम्यक् हो सकता है, यह बोध भी होना चाहिए । हमारे शरीर में कुछ ग्रन्थियां बहुत महत्वपूर्ण हैं । यदि एड्रीनल ग्लैण्ड ठीक काम नहीं कर रहा है तो कुछ विकृतियां पैदा हो जाएंगी । यदि थायराइड ग्लेण्ड ठीक नहीं है तो स्वास्थ्य की समस्या जटिल बन जाएगी । यदि किडनी ठीक काम नहीं कर रही है तो मनुष्य रुग्ण बन जाएगा । हम आसन के द्वारा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को स्वस्थ रख सकते हैं, पाचनतंत्र को स्वस्थ रख सकते हैं, मेरुदण्ड को लचीला बनाए रख सकते हैं । यदि हम इन सबके प्रति जागरूक होते हैं तो साधना-पक्ष का भी सम्यक निर्वाह कर सकते हैं। महावीर के स्वास्थ्य-शास्त्र पर विचार करें तो इन प्रश्नों को गौण नहीं किया जा सकता । महावीर ने आसन का विधान केवल साधना की दृष्टि से नहीं किया, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी किया । महावीर बार-बार यह कहते हैं- आसन नित्य प्रशस्त हैं, सदा आचरणीय हैं । इसका अर्थ है कि उसमें स्वास्थ्य और साधना- ये दोनों दृष्टियां समाहित हैं । आसनों का सम्यक् विवेक और विश्लेषण कर स्वयं निर्धारित करें कि कौन-सा आसन मेरे लिए ज्यादा अच्छा है | उसके साथ एक दृष्टिकोण अवश्य स्पष्ट रहे- आसन का मुख्य उद्देश्य है निर्जरा, आत्मा का शोधन । केवल स्वास्थ्य के लिए ही आसन करेंगे तो बात सीमित हो जाएगी, लक्ष्य भी सिकुड़ जाएगा । हम आसन करें निर्जरा की दृष्टि से । निर्जरा होगी, आत्मा का शोधन होगा, संस्कारों का परिष्कार होगा और साथ-साथ शरीर के अंगों-अवयवों की क्रिया भी सम्यक् होगी । इस समग्र दृष्टि से आसनों का प्रयोग करें तो महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र और योगासन में सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है तथा उससे बहुत लाभ उठाया जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186