Book Title: Mahavira ka Swasthyashastra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 154
________________ १४० महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र है । अपान की शुद्धि प्राण को भी बल देती है । प्राण का एक स्थान माना गया है नासाग्र । प्रेक्षाध्यान की भाषा में उसे प्राणकेन्द्र कहा जाता है । प्राण नामक जो प्राणधारा है, उसका एक स्थान है हृदय । नाभि भी उसका स्थान है और पैर का अंगूठा भी उसका स्थान है । ये प्राण के स्थान हैं । जब प्राण और अपान का योग होता है, तब अनेक स्थितियां पैदा होती हैं । अपान विकृत होकर प्राण को भी विकृत कर देता है । हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि कब्ज की अवस्था में मानसिक स्थिति कैसी बनती है ? बुरे विचार आते हैं । नींद भी पूरी नहीं आती । व्यक्ति अवसाद और तनाव से घिर जाता है । काम में भी बिल्कुल मन नहीं लगता । कोई दवा ली, रेचन हुआ, पेट बिल्कुल साफ हो गया । मन भी प्रसन्न हो गया, उल्लास का संचार हो गया । मंत्र का प्रयोग. ―――― अपानशुद्धि का प्राणधारा के साथ बहुत गहरा संबंध है । इसीलिए योग में हृदयरोग के निवारण के लिए मंत्र का निर्माण भी किया गया । वह बीज मंत्र है 'लं' । इसके उच्चारण से हृदयरोग मिटता है । लं... लं... लं यह लयबद्ध जाप हृदयरोग की समस्या के लिए महान् औषध है । शरीर में पांच तत्व माने गए हैं। इनमें पृथ्वी तत्व का बीज मंत्र है- लं । लं के उच्चारण से पृथ्वी तत्व सक्रिय बनता है । पृथ्वी तत्व का स्थान अपान का स्थान है, शक्तिकेन्द्र का स्थान है । अपान का प्राण के साथ जो संबंध है, उसे किसी निदानिक सिद्धान्त अथवा डायग्नोसिस के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । किन्तु प्राण और अपान की क्रिया का सम्बन्ध जानने पर प्रतीत होता है कि 'लं' का जप बहुत महत्वपूर्ण है । कुछ लोगों ने हृदयरोग की समस्या के संदर्भ में 'लं' का प्रयोग किया और उसका अनुकूल परिणाम भी आया । इसका मंत्र के साथ में भी उच्चारण किया जाता है । लं के प्रयोग से हृदय - क्षेत्र में प्रतिक्रिया होती है और आरोग्य भी मिलता है । जैन मंत्रशास्त्र में ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं हूं ह्रः - इस मंत्र को बहुत शक्तिशाली माना गया है । ऐसे हृदयरोगियों को, जिनका फुफ्फुस कमजोर था, इस मंत्र का प्रयोग कराया गया, उन्हें बहुत लाभ हुआ । प्रश्न हो सकता हैकैसे मिला ? इससे शक्ति का संचार और अवरोध का निवारण होता है । - लाभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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