________________
महावीर : परिचय और वाणी ___ करने की जो चरम क्षमता है, उसके कारण ही वे महावीर कहलाए।
उनकी व्यवस्था मे न तो भय की कोई गुजाइश है ओर न समर्पण की। इसीलिए चे परमात्मा को भी इनकार करते है। अगर भगवान है तो समर्पण करना पडेगा । महावीर मान नही सकते कि हमसे भी कोई ऊपर है । पुरुप-चित्त समर्पण नही करता। यह कोई दर्शन की बात नहीं है कि परमात्मा नही है । तुम ही परमात्मा हो, मै ही परमात्मा हूँ ! आत्मा ही शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है। आत्मा ही जब पूर्ण रूप से जीत लेती है तो परमात्मा होजाती है । ऐसा कोई परमात्मा नही जिसके पैरो मे तुम सिर झुकाओ और प्रार्थना करो।
अत महावीर का ढग है दृढ सकल्प का और वे कहते है कि अगर किसी भी चीज के लिए पूर्ण सकल्प हो गया हो तो उपलब्धि हो ही जायगी । बुद्ध की बात और है, क्राइस्ट की कुछ और। क्राइस्ट विना सूली पर चढे सार्थक ही नहीं होते। परन्तु अगर महावीर सूली पर चढे तो हमारे लिए व्यर्थ हो जायेंगे। कृष्ण का व्यक्तित्व इन सबमे भिन्न है। कृष्ण और महावीर मे मेल बिठाना सम्भव नही, क्योकि इनमे कोई मेल ही नहीं। फिर भी इन सवका महत्त्व है, ये सब इस अर्थ मे सार्थक है कि पता नहीं, कौन-सा व्यक्तित्व ज्योति की अनुभूति कराए-किस व्यक्तित्व से आपको ज्योति दीखे । किन्तु याद रहे, आपको उसमे ही ज्योति दीखेगी जिसके व्यक्तित्व का प्रकार आपके व्यक्तित्व के किस्म के अनुकूल है।
जहाँ महावीर की व्यवस्था मे पूर्ण सकल्प का महत्त्व असदिग्ध है, वही बुद्ध के लिए सकल्प सधर्प है । बुद्ध कहते है सवर्प से सत्य कैसे मिलेगा ? इसलिए सकल्प छोडो, शान्त हो जाओ। सकल्प ही न करो तो उस शान्ति मे सत्य फलित हो सकता है। यह भी ठीक है, यह भी एक खिडकी है और ऐसे भी सत्य मिल सकता है । महावीर भी इसे ठीक बतलाते है। किन्तु, यदि आप महावीर से प्रेम करते है तो आप क्राइस्ट की मूर्ति महावीर-जैसी ढालेगे, क्राइस्ट से प्रेम करते है तो महावीर की मूर्ति क्राइस्ट-जैमी ढालेगे। तभी बात गडबड हो जाती है। क्राइस्ट से प्रेम करनेवाला व्यक्ति अगर महावीर की मूर्ति ढालेगा तो वह महावीर को सूली पर लटका देगा। इसका कारण है कि अभी वह साकेतिक भाषा-'कोड लैंग्वेज'-मैदा नही हो सकती जो सारी मूर्तियो मे काम आ सके । अगर हम झॉकना चाहे सबके भीतर समानता के लिए तो हमे मूर्ति मिटा देनी पडेगी। फिर हमे एक नया कोड विकसित करना होगा । आरम्भ मे बुद्ध को मूर्ति नही थी, परन्तु वुद्ध के मरने के बाद पाँच-छह सौ साल मे उनके अनुयायियो की हिम्मत टूट गई और मूर्ति आ गई । मुसलमानो ने बड़ी हिम्मत जाहिर की। चौदह सौ साल हो गए, किन्तु उन्होने मूर्ति को प्रवेश करने नही दिया । मन मूर्ति के लिए लालायित रहता है। उसकी इच्छा होती है कोई रूप बने । कुछ लोग हैं जिनके लिए समी रूपो मे भल दिखाई पडी है। उन्होने रूप हटाकर भी