Book Title: Mahavir Jivan Me
Author(s): Manakchand Katariya
Publisher: Veer N G P Samiti

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Page 10
________________ का सरकस कर रहा है । इस खेल में वह भीतर से बहुत टूटा है । जरूरत है कि हम कुछ रुक जाय और अपना एक्सरे कर डालें -- कितना टूटे और कहा कहा से टूटे, देख ले ? जीवन में अहिंसा कितनी उतरी ? २५०० वे परिनिर्वाण वर्ष से अधिक अच्छा समय और कोनसा होता? इस परमपावन वर्ष में मैं यह आत्म-निरीक्षण कर गया । कितना काम का और कितना अनर्गल इसे आप तौलिये । कही ना हो गया हूँ तो क्षमा चाहता हूँ। कुछ पुनरुक्ति भी हुई है। वही वही बात बार-बार कह गया हूँ । इन सब कसौटियों पर मुझे न कसकर इतना ही ग्रहण करे कि अहिं जीकर ही हाथ लगेगी और मनुष्य के सामने अपना सम्पूर्ण जीवन बदलने के अलावा कोई और मार्ग नही है । तीर्थंकर के सम्पादक डॉ नेमीचन्दजी का आभार मानकर उऋण नहीं होना चाहता - उनका आग्रह, बल्कि प्रेमाक्रमण टाल सका होता तो यह लेखमाला आतो ही नही | श्री वीर निर्वाण ग्रथ प्रकाशन समिति का मै कृतज्ञ हूँ कि उसने विचार सेवा के माध्यम से इनमे से कुछ लेख पूरे देश मे प्रसारित किए और अब यह सकलन पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर रही है । इस स्नेह के लिए मैं समिति के दोनो स्तम्भ - श्री बाबूलालजी पाटोदी और श्री माणकचन्दजी पाड्या का हृदय से आभारी हूँ । माणकचन्द कटारिया

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