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भूमिका अंचित होता है तो ऐसा लगता है कामदेव रोमांचित हो उठा हो । पोड़ा-थोड़ा परलवित अशोक ऐसा फगता है जैसे पिघाताको चित्रकारी हो । मन्दारकी दालमें यदि कोंपल फूटे है तो लगता है कि वसन्तने पलदलको नवा दिया हो । यदि पुनागवृक्ष में कलियाँ जाती है वो लगता है कि वह पीघ मतवाले चकोरों और शुकोंके शब्दोंसे भर उठा हो। वनमें खिला हुया पलास ( टेसू ) ऐसा मालूम होता है जैसे राहगीरों के लिए विरहकी आग जला दो गयी हो। मालती फूलह क्या बिग मात कपडभोंमे रसिका: लालच फैल गया । कुन्दवृज अपने कुसुमल्पी दांतोंसे हैसने लगे । और कोयलने कामका नगाड़ा बजाना शुरू कर दिया।" 28-14.
उस अवसरपर जो केलिगृह बनाये गये उनका निराला ठाठ-बाट पा
"सधन मधुके छिड़कावोंसे और परागोंकी रंगोलीसे घरती व्यार हो उठी। वसन्त राषा सपवनरूपी भवनमें, मवपुष्पोंकी फलियों-कपी दीपों, ममूरोंकी नृत्यमुद्राओं, पवल कुसुम मंजरियोंको पुष्पमालाओंपर गूंजते हए भ्रमरोंको गीतावधियों तथा राज-इसिनियोंकी रमणशील कोदाक साथ आसन ग्रहण करते है।" 28-15.
नारीरूप चित्रण
बहुपत्नी प्रथा सामन्तवादकी सबसे बड़ी विशेषता रही है। नारियोंकी भरमार होनेसे उनके रूप चित्रपकी बहुलता होनो स्वाभाविक है। स्त्रीको लेकर होनेवाले इसके मूल, उसके प्रति यो पुरुषोंका आकर्षण है, और जहाँ ऐसा है-वहाँ पर होना अनिवार्य है। कविके शब्दों में
"एक्काहि भिसिणिहि दो हंसवर । एकहि किसकलियहि दो भमर 1; जद होति होंतु ण घडा अवा ।
सरु संघस विषत कुसुमसा ॥" एक कमलिनी और दो श्रेष्ठ हंस हों, एक दुबली-पतली कली और दो भ्रमर हों, तो यह होना नहीं घट सकता, केवल कामदेव सर-सम्मान करता है और बेषता है। एक तरुणोफे उरोजोंका क्या दो भावमी अपने कोमल हाथोंसे धानन्द ले सकते हैं? यह सोचकर दोनों विद्याधर कुमारोंमें लड़ाई उन गयी। यह दुहराने की आवश्यकता नहीं कि अपभ्रंश काश्योंमें वर्णित अधिकांश युद्धका कारण 'नारीरूप' है। और यह सामन्तवादो समाजको या पुरुष प्रधान समाज व्यवस्थाकी विशेषता नहीं-प्रत्युत मनुष्प प्रकृतिको विशेषता है। यह मनुष्यको ही प्रकृति नहीं, समूचे चेतन जगत्को प्रकृति है, चेतनाके विकासस्तरके साथ रागचेतनाका विकास होता जाता है। सारी आध्यात्मिक साधनाएँ इसी रागचेतनाको प्रतिक्रियासे जम्मी साधनाएं है । आस्तिक दर्शन इस पेठमाको ईश्वरको आस्मरतिका बाह्य विस्तार मानते है, अनीश्वरवादी दर्शन उसे क्षणिक दाखमलक या परभाव मानते हैं। नारीरूप चित्रण या श्रृंगारकी अभिव्यक्ति पपातका अन्तिम उद्देश्य नहीं है ? परन्तु वैराग्यकी अनुभूतिके लिए रागकी मांसल अनुभूतिका वर्णन जरूरी है। सभी देशों और समयोंके मनुष्य प्रेमके मामले में जो एकाधिकारवादी रहे है, वह इसलिए कि अपनी प्रिय वस्तुपर एकाधिकारकी भावना प्रेमकी विशेषता है।
श्रीमतीका नरस-शिख वर्णन करता हमा पुष्पदन्तका काय स्वीकार करता है: कुंकुमसे बारक्त उसके परोंको मैं कामदेवकी भुजाएं मानता हूँ। पराग मणियोंकी तरह लाल लाल पर क्या नक्षोंकी तरह नहीं जान पड़ते ? चस युवतीके घुटनों के जोड़ोंको देखकर मुनि कामदेवका सन्धान करने छगते है। ऐसा कौन है कि जिसकी वेवारी मनरूपी गैर-मश्चक्रीड़ा मैदानम ( पौगानके खेल के मैदानमें) चल नहीं हो सकती ?