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दार्शनिक विचार
भरतको विज्ञासाके समाधानमें ऋषभदेव कहते है कि जिसमें ग्ध स्पित रहते है और दिखाई देते है वह लोक है, उसे किसीने नहीं बनाया, और न कोई उसे धारण किये हुए है। नह-चेतमसे भरा हुआ वह स्वभावसे रचित है। किसी चीजकी रचनाके लिए उपादान और निमित्त कारणोंका होमा जरूरी है । शिव, पृथ्वी आदि उपादान कारण कहाँ पाता है ? किसी रचनाके मूल में इच्छा होती है, व्याधिहीन शिवम इच्छा कैसे ? कुम्भकार अपनेसे भिन्न घड़ेकी रचना करता है-पानी रचनासे रचयिता भिन्न है। कर्ता-कर्म एक नहीं हो सकते, और कर्ताके बिना कर्म नहीं हो सकता । कुम्मकारके बिना यदि प्रा बन सकता है तो मिट्रीका पिण्ड स्वयं कलश बन सकता है। जो सम्भव नहीं है। शिव यदि इस सुष्टिका परित्राण करता है तो सपने दामों की रचना ही पथीं की ? यदि वत्सलता के कारण सृष्टिको रचना की जाती है तो समोके लिए भोगोंकी रचना क्यों नहीं की गयो?
जह वच्छलेण जि कियन लोउ।
तो किं ण किया सम्बह बिहोत ॥ ऋषम तीर्थकरके कपनका निष्कर्ष यह है कि लोक ( Space ) में जो कुछ स्थित और दृश्य ई, वह स्वतः है, वह अनादि-अनन्त है। किसीको ( चाहे वह कोई हो ) उसका की मानना मानवी तर्कको मबहेलमा करना है।
राजा महाबलका मन्त्री स्वयंधि अपने साथी मन्त्रियोंके दार्शनिक मतों का खण्डन करता हुआ पाक मतको मूतयोगवादी कहता है। उसका मुख्य तर्क है कि पृथ्वी आदि पार महाभूतोंके मेलसे जीवकी उत्पत्ति मानना ठीक नहीं । क्योंकि एक तो इनमें परस्पर विरोष है, माग पानीको सोख लेती है, और पानी मागको बुप्ता देता है। दोनोंका मिश्रण असम्भव है। जड़ और चेतन, दोनों भिन्न स्वरूपवाले है। अतः जनमें मिलाप सम्भव नहीं। क्षणिकवावका खण्डन करते हुए स्वयंति कहता है कि संसारमै सम्बरके बिना कोई वस्तु नहीं। जो पोष है ही नहीं उसका अस्तिस्त्र क्षणमें कैसे हो सकता है। यदि प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर है, तो वासना क्षण नाशको प्राप्त क्यों नहीं होती ? असः बस्तु क्षणजीवी नहीं है, प्रत्युत क्षणान्तरगामी है। यस्तुतः जिसके रहनेसे काल परिणमम करता है, वह काल है। जहाँ वह काल है वह बाकाशतल है, गलिमें सहायक धर्म ब्रण्य है और स्थिरतामें सहायक अधर्म तव्य है । पुद्गल अचेतन है । सचेतनमें जानका कारण जीव है। बिना जीवके पुद्गल न देख सकता है, न चिल्ला सकता है। बतः अबमें किया घेतनाके बिना सम्भव नहीं हो सकती । प्रकृति-चित्रण
मामेयचरितके इस उत्तरार्ध भागमें प्रकृति-चित्रणका विस्तार नहीं है । काशीराज-पुत्री सुलोचनाके स्वयंषरके प्रसंगके पूर्व वसन्तका वर्णन है । सुलोचनाका रूप-चित्रण करते-करते मन्त्री कहता है
लोलान्दोलनकी युक्तियां वसन्तके आगमनपर शीघ्र आ गर्यो । वसम्तके प्रागमनका समय अंकुरित, कुसुमित और पल्लवित होकर खिल उठा। जिस ऋतु चेतनाशून्य वृक्ष खिल उठते है यहाँ मनुष्यका मन क्यों नहीं खिलेगा?
"वियति बचेयण तरु वि जहि ।
सहि पर कि गउ वियसइ ॥' 28-13. कवि प्रकृतिके एक-एक वृक्षकी हलचलका कम मानवी चेतनाके प्रतिक्रिया के द्वारा करता है : “पदि आम्रवृक्ष कंठकित होता है तो वसम्तकी शोभा उसे आलिंगनमें बांध लेती है। यदि पम्मक वृक्ष अंकुरोंसे