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(६६) आवल्याश्चन्तिमौ द्वौ स्तो लोल लोलुपसंज्ञकौ। विशतितमैकविंशौ सीमन्तनरकेन्द्र कात् ॥३४॥ उद्दग्ध निर्दग्धसंज्ञौ ज्वरप्रज्वरको पुनः । पंचत्रिंशषट्त्रिंशौ प्राच्यावल्यां स्मृता अमी ॥३५॥ युग्मं ।
इस आवली के आखिर के दो के नाम लोल और लोलुप है और सीमन्तक नरकेन्द्र से बीसवीं और इक्कीसवीं का नाम उद्दग्ध और निर्दग्ध है तथा पैंतीस और छत्तीसवीं का ज्वर और प्रज्वर नाम है । यह सब पूर्व पंक्ति में है । (३४-३५)
उदीच्याद्यावलिकासु मध्यावावशिष्टकैः ।। पदैर्विशिष्टाः प्रज्ञप्ताः प्रागुक्ता नरकाः क्रमात् ॥३६॥ . यथोदीच्या लोलमध्यलोलुपमध्यसंज्ञकैः । पश्चिमायां लीलावतलोलुपावतसंज्ञाकौ ॥३७॥ लीलावशिष्टलोलुपावशिष्टसंज्ञकाव पाम् । भाव्या नामव्ययस्थैवं प्रागुक्तेष्वखिलेष्वपि ॥३८॥
उत्तर पंक्ति के नरकावासो के नाम पूर्व कहे नरकावास को मध्य अर्थात् पद लगाने से निकलता है जैसे कि - लोल मध्य, लोलुप मध्य पश्चिम पंक्ति के आवासों के नाम आवर्त पद लगाने से साधित होता है, जैसे कि लीलावत दक्षिण पंक्ति के आवास के नाम अवशिष्ट पद लगाने से निकलता है जैसे कि लीलाव शिष्ट लोलुपांवशिष्ट । इसी ही तरह पूर्वोक्त सर्व नरकावासो में नामों की व्यवस्था समझ लेना चाहिए । (३६-३८)
तदुक्तंस्थानांगवृत्तौ - मज्जा उत्तरपासे आवत्ता अवर ओ मुणेयव्वा । सिट्ठा दाहिणं पासे पुविलाओवि भइयव्वत्ति ॥३६॥
इस विषय में स्थानांग सूत्र की वृत्ति में इस तरह कहा है - उत्तर पास मध्य, पश्चिम में आवत, दक्षिण में अवशिष्ट और पूर्व में भजना जानना । (३६)
सर्वेऽपि ते रौद्र रूपाः क्षुरप्रोपमभूमयः । देहिनां दर्शनादेवोद्वेजकाः कम्पकारिणः ॥४०॥
सर्व नरकावास का दिखाव ही भयंकर है उनकी भूमि तो मानो बरछी तलवार ही न हो इस तरह देखने मात्र से ही प्राणी का शरीर कांप उठे इस तरह का नरकवास है । (४०)