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(१३८)
द्विपंचाशत् सहस्राणि साीन्युन्मुच्य मध्यतः ।।
एक एव प्रस्तटः स्यात् सहस्रात्रितयोन्नतः ॥२८७॥ युग्मं ।
इस नरक की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है । उसमें नीचे और ऊपर, समान रूप से साढ़े बावन हजार योजन दोनों तरफ छोड़कर, मध्य में एक ही, तीन हजार योजन ऊँचा प्रतर है । (२८६-२८७) . .
लक्षयोजन विस्तारः तनमध्ये नरकेन्द्रकः । । अप्रतिष्टानको नाम्ना तस्मात्प्राग्वच्चतुर्दिशम् ॥२८८॥ ... एकैको नरकावासः यस्त्रो भूरि भयंकरः ।।
असंख्य योजनायाम विष्कम्भ परिधिः स्मृतः ॥२८६॥ युग्मं ।
उसमें लाख योजन विस्तृत 'अप्रतिष्ठान' नामक एक नरकेन्द्र है । इस नरकेन्द्र में पूर्व समान चारों दिशा में एक-एक नरकावास कहा है वह बहुत भयंकर है और इसकी लम्बाई, चौड़ाई तथा घेराव असंख्य योजन है । (२८८-२८६)
तथाहि - प्राच्या कालः प्रतीच्यां च महाकाल इति,स्मृतः । महारोरुरूत्तरस्यां रोरूः दक्षिणतो भवेत् ॥२६०॥
तथा इसके चारों दिशा के चार नरकावास हैं । इसके नाम इस तरह हैं१- पूर्व दिशा में 'काल' नाम है, २- पश्चिम दिशा में 'महाकाल' नाम है, ३- उत्तर दिशा में महारोरू' नाम है और ४- दक्षिण दिशा में रोरू नाम है । (२६०)
विदिक्ष चात्र नैकोऽपि तत्पंक्तीनां परिक्षयात । प्रतरोऽयं यदेकोज़पंचाशत्तम आहितः ॥२६१॥
यहां विदिशा में एक भी नरकवास नहीं है क्योंकि विदिशा में पंक्ति बंद हो गयी है, क्योंकि ये उनचासवां प्रतर है । (२६१)
तमः प्रभावद्विज्ञेया द्विविधात्रापि वेदना । सर्वोत्कृष्टा तीव्रतमाऽनन्तना सर्वतोऽपि हि ॥२६२॥
यहां भी तमः प्रभा नरक के समान दो प्रकार की वेदना होती है और यह सब से उत्कृष्ट, अत्यन्त तीव्र तथा अनन्त गुणा होती है । (२६२).
देहमानं भवेदत्र सहस्त्रद्वितयं कराः । स्वाभाविकं कृत्रिमं तु सर्वत्र द्विगुणं भवेत् ॥२६३॥