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अब नक्षत्र के विमानों का परस्पर अन्तर कहते हैं - जिस-जिस मंडल में जो-जो नक्षत्र कहने में आता है, उस-उस नक्षत्र के विमानों का परस्पर अन्तर दो योजन का है । (५१५)
मिथोऽन्तरमुडूनां चेदिदमेव भवेत्तदा । मण्डलक्षेत्रमन्यत् स्यात् भूशून्यं तच्च नेष्यते ॥५१६॥
नक्षत्र-नक्षत्र के बीच में परस्पर अन्तर भी कितने स्थान में इतना ही (दो योजन) कहा है । वह यदि इतना ही स्वीकार करें, तभी मंडल क्षेत्र बिना भी अन्य स्थान शून्य रहे वह इच्छित नहीं है । (५१६)
__"यत्तु दो. जो अणाई णक्खत मंडल स्स य अबाहाए अंतरे पण्णते इत्येतत् जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्रतत् अष्टास्वपि मण्डलेषुयत्र यत्र मण्डले यावन्ति नक्षत्राणां विमानानि तेषामन्तर बोधकम् । यच्च अभिजिन्नक्षत्र विमानस्य श्रवण नक्षत्र विमानस्य च परस्परमन्तरं द्वे योजने इति उपाध्याय श्रीशान्ति चन्द्र गणिभिः स्वकृत वृत्तौ व्याख्यायि तदभिप्रायं सम्यक् न विद्मः । यद्यपि उपाध्याय श्री धर्मसागर गणिभिः स्वकृत वृतौ एतत् सूत्र व्याख्याने द्वे योजने नक्षत्रस्य नक्षत्रस्य च अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् इत्येव लिखितमस्ति तदपि अभिप्राय शून्य मेव ॥" . .
- 'जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र में प्रत्येक नक्षत्र मंडल का अबाधा अन्तर, दो योजन कहा है, वह आठ मंडलों में जिस-जिस मंडल के अन्दर जितने नक्षत्रों का विमान है, उनका परस्पर अन्तर को बताने वाला है। अभिजित् नक्षत्र का विमान और श्रवण नक्षत्र के विमान के बीच में भी उपाध्याय श्री शान्ति चन्द्र गणि ने अपनी रचित टीका में दो योजन का अन्तर कहा है । वह भी हमें समझ में नहीं आता । वैसे ही श्री उपाध्याय जी धर्म सागर गणि ने भी अपनी रचित वृत्ति में नक्षत्र-नक्षत्र बीच का अन्तर दो योजन का कहा है, इस तरह लिखा है, वह लेख भी अभिप्राय शून्य है।'
चतुश्वत्वारिंशतैव सहस्रैरष्टभिः शतैः । विंशैश्च योजनैः मेरोः सर्वान्तरं भमण्डलम् ॥५१७॥ सहत्रैः पंच चत्वारिंशता विंशैस्त्रिभिः शतै । योजनैः मेरूतः सर्वबाह्यं नक्षत्र मण्डलम् ॥५१८॥
इति मेरो: अबाधा ॥४॥