Book Title: Lokprakash Part 02
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 571
________________ (५१८) इस तरह सूर्य चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा इन सबकी गति आदि का स्वरूप किंचित् मात्र कहा है, अब विशेष कहने का है, वह उपयोग अनुसार ज्योति चक्र के वर्णन करते समय कहा जायेगा । (७२०) विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्ति विजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष द्राज श्री तनयोऽत निष्ट विनय श्री तेजपालात्मजः । . . काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्व प्रदीपोपमे . .. सो निर्गलि तार्थ सार्थ सुभगो: विशः समाप्तः सुखम ॥७२१॥ इति विंशतितमः सर्गः॥ समस्त जगत को आश्चर्य चकित करने वाले कीर्ति के स्वामी श्री कीर्ति विजय जी उपाध्याय के अन्तेवासी शिष्य तथा पिता श्री तेजपाल और मातु श्री राजबाई के सुपुत्र विनय विजय उपाध्याय ने जगत के निश्चित तत्वों को दीपक के समान प्रकाशित करने वाला जो यह काव्य ग्रन्थ रचा है, इसमें निकलते अनेक अर्थों को लेकर मन हरण कर लेता है, ऐसा यह बीसवां सर्ग विघ्न रहित समाप्त हुआ । (७११) - बीसवां सर्ग समाप्त - "इस प्रकार लोक प्रकाश का द्वितीय विभाग-क्षेत्र लोक पूर्वार्ध का हिन्दी अनुवाद आषाढ शुद दूज रविवार पुष्य नक्षत्र में, तारीख १०-७-६५ को फिलखाना, हैदराबाद श्री महावीर स्वामी जैन मंदिर के नीचे उपाश्रय में संपूर्ण किया। इति शुभम्।"

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