Book Title: Lokprakash Part 02
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 554
________________ (५०१) कुमार, अग्नि कुमारियां, वायु कुमार, वायुकुमारियां, चन्द्र, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और तारा इत्यादि देव हो, सदा खड़े रहते हैं । यह देवता द्वार पूर्ण हुआ। (६) तिस्त्रः तिस्त्रः पंच शतं द्वे द्वे द्वात्रिंशदेव च । तिस्त्रः तिस्त्रः षट् च पंच तिस्त्र एका च पंच च १६२५॥ तिस्रः पचं सप्त द्वे द्वे पंचैकैकिका द्वयोः । पंच चतस्त्रः तिस्त्रश्च तत एकादश स्मृताः ॥६२६॥ चतस्त्रश्च चतस्त्रश्च तारा संख्याभिजित्कमात् । ज्ञेयान्युडूविमानानि तारा शब्दात् बुधैरिह ॥६२७॥ अब प्रत्येक नक्षत्र के ताराओं की संख्या कहते हैं । यहां अभिजित नक्षत्र से लेकर सब अट्ठाईस नक्षत्रों की तारा की संख्या अनुक्रम से जानना - तीन-तीन, पांच सौ, दो-दो, बत्तीस, तीन-तीन, छः, पांच, तीन एक, पांच, तीन, पांच सात, दो-दो पांच, एक, एक, पांच, चार, तीन, ग्यारह, चार और चार है। यहां 'तारा' शब्द का अर्थ नक्षत्रों के विमान समझना । (६२५ से ६२७) न पुनः पंचमज्योतिभेदंगाः किल तारकाः । विजातीयः समुदायी विजातीयोच्च यान्नहि ॥२८॥ प्रथीयांसि विमानानि नक्षत्राणां लघुनि च । तारकाणां ततोऽप्यैक्यं युक्तिः सासहि नानयोः ॥६२६॥ किं च कोटा कोटि रूपा तारा संख्यातिरिच्यते । अष्ट विंशति रूपा च ऋक्षसंख्या विलीयते ॥६३०॥ नक्षत्रों के विमान बड़े-बड़े हैं, और ताराओं के विमान छोटे-छोटे हैं । इस बात से वे दोनों एक जैसे नहीं है । ताराओं की संख्या कोटा-कोटि है और नक्षत्रों की संख्या तो केवल अट्ठाईस ही है । (६२६-६३०) तत् द्वित्यादि विमानेषः स्यात् देवोऽभिजितादिकः । गृहद्वयाधिपतिः यथा कश्चिन्महर्थिकः ॥६३१॥ एवं च न काप्युपपत्तिः तारा संख्या प्रयोजनं च ॥ यहां जैसे कोई महा समृद्धशाली मनुष्य हो, उसे दो-तीन अथवा विशेष घरमहल आदि होते है, वैसे ही इन अभिजित आदि देवों के भी दो-तीन या विशेष

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