Book Title: Lokprakash Part 02
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 559
________________ (५०६) अत्रायमाम्नाय :सप्तषष्टयुद्भवानंशानहोरात्रस्य यावतः । यन्नक्षत्रं चरत्यत्र रजनीपतिना सह ॥६५६॥ तन्नक्षत्रं तावतोऽहोरात्रस्य पंचमान् लवान् । भानुना चरतीत्यत्र दृष्टान्तोऽप्युच्यते यथा ॥६५७॥ यहां जानकारी इस तरह है :- एक नक्षत्र का अहोरात्रि के सड़सठवां भाग तक चन्द्रमा के साथ में योग होता है, उसके पांचवे भाग के अहोरात तक सूर्य के साथ में योग होता है । यहां उसका दृष्टान्त कहते हैं । (६५६-६५७) सप्तषष्टि लवानेक विंशतिं राशिना सह । चरत्यभिजित् अर्केण तावतः पंचमान् लवान् ॥६५८॥ - अहोरात्रस्य इति शेषः। अथैक विंशतिः पंचभक्ता दिनचतुष्टयम् । दद्यादेकोंशकः शेषस्त्रिंशता. सं निहन्यते ॥६५६॥ जातास्त्रिंशत् अर्थतस्याः पंचभिः भजने सति । षण्मुहूर्ताः करं प्राप्ता एवं सर्वत्र भावना ॥६६०॥ अभिजित् नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ में योग २१/६७ अहो रात्रि का होता है, तब उस पर से उसका सूर्य के साथ में योग २१/५ अहोरात्रि का होता है, अर्थात् २१/५ अहोरात = ४ अहोरात्रि और छः मुहूर्त होता है । क्योंकि ३० मुहूर्त का एक दिन रात होते है । इसी तरह से सर्वत्र भावना करनी चाहिए । (६५८-६६०) . तथाहु :जं रिक्खं जावइए वच्चइ चंदेण भागसत्तट्ठीं। स पणभागे राइंदियस्य सुरेण तावइए ॥६६१॥ . अन्यत्र भी कहा है कि - एक नक्षत्र का अहोरात्र के सड़सठवां भाग तक चन्द्र के साथ में संयोग होता है, उसके पांचवे भाग के अहोरात तक सूर्य के साथ में संयोग होता है । (६६१) सप्तषष्टिः तदर्धं च चतुस्त्रिंश तथा शतम् ।। समार्ध सार्ध क्षेत्रेषु सप्तपशिष्टः लवाः क्रमात् ॥६६२॥ इति सूर्येन्दु योगाद्धामानम् ॥१२॥

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