Book Title: Lokprakash Part 02
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 537
________________ (४८४) अष्टावेव मण्डलानि स्युरष्टाविंशतेरपि । उडूनां तत्र चारस्तु नियते स्वस्वमण्डले ॥५०॥ इति मण्डल संख्या ॥१॥ अट्ठाईस नक्षत्रों का मंडल तो केवल आठ ही है, और उन आठ में से अपने अपने नियत मंडल में ही इन नक्षत्रों की गति है । (५०६) यह मंडल संख्या कही (१) साशीतियोजनशते द्वीपस्यान्तरवर्तिनि । उक्तं मुक्तिवधुकान्तैः नक्षत्रमण्डलद्वयम् ॥५१०॥ त्रिंशे च योजन शतत्रये लवणवारिधेः । षड् नक्षत्र मण्डलानि दृष्टानि विष्टपेक्षिभिः ॥११॥ नक्षत्र मण्डलं चक्रवाल विष्कम्भंतो भवेत् । गव्यूतमेकं प्रत्येकं गव्यूतार्थं च मेदुरम् ॥५१२॥ अब नक्षत्रों का क्षेत्र कहते हैं - मुक्ति वधू और कान्त रूप दो नक्षत्र मंडल जम्बू द्वीप में कहे है, और वे १८० योजन में है, और शेष छ: नक्षत्र मंडल लवण समुद्र के ऊपर है, और वे ३३० योजन में हैं। प्रत्येक नक्षत्र मंडल चक्रवाल के विष्कंभ में एक कोस है और चौड़ाई में आधा कोस होता है । (५१० से ५१२) एवं नक्षत्रजातीयमण्डल क्षेत्रसंमितिः । दशोत्तरा पंचशती योजनानां निरूपिता ॥५१३॥ इन सब आठ नक्षत्र मंडल का क्षेत्र १८०+३३० को मिलाकर कुल ५१० योजन का होता है । (५१३) न त्यैकैकस्य ऋक्षस्य मण्डल क्षेत्रसम्भवः । रवेरिवायनाभावात् सदाचारात् स्वमण्डले ॥१४॥ इति मण्डल क्षेत्रम् ॥२॥ सूर्य के समान अयन के अभाव के कारण तथा हमेशा अपने-अपने नियत मंडल में ही गमन करते हैं, इससे प्रत्येक नक्षत्र का मंडल क्षेत्र नहीं होता है । (५१४) यह दूसरा मण्डल क्षेत्र हुआ । (२) यत्र यत्र यानि यानि वक्ष्यन्ते भानि मण्डले । स्यात्तदीय विमानानां द्वे योजने मिथोऽन्तरम् ॥५१५॥

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