Book Title: Lokprakash Part 02
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 466
________________ (४१३) सहस्रा नवनवति योजनानां च षट्शती । पंच चत्वारिंशदाढया पंच त्रिशत्तथा लवाः ॥५२॥ युग्मं । सर्व अभ्यन्तर मंडल के बाद जब ये दोनों सूर्य दूसरे मंडल में फिरते हैं, उनका परस्पर अन्तर (दूरी) निन्यानवें हजार छः सौ पैंतालीस योजन और पैंतीस लव जितना रहता है । (५१-५२) तथा ह्येकोऽप्यर्क इह द्वितीय मंडले व्रजन् । साष्टाचत्वारिंशदंशे द्वे योजने व्यतिक्रमेत् ॥५३॥ एवं द्वितीयोऽपि ततोवर्द्धन्ते प्रतिमंडलम् । योजनानि पंच पंचत्रिंशद्भागा मिथोऽन्तरे ॥५४॥ एवं भावत्सर्व बाह्य मंडले चरतस्तदा । तयोः मिथोऽनतरं लक्ष सषष्टीनि शतानि षट् ॥५५॥ अन्तर्विशन्तौ तो सर्व बाह्य मंडलतः पुनः । अर्वाचीने सर्व बाह्याद्वर्तेते मंडले यदा ॥५६॥ तदार्कयोरन्तरं स्याल्लक्षमेकं शतानि षट् । .चतुः पंचाशानि लवाः षड् विंशतिः पुरोदिताः ॥५७॥ एवमंन्तः प्रविशतः प्रतिमंडलमन्तरम् । पंचभिर्योजनैः पंचत्रिंशतांशैश्च हीयते ॥५८॥ वह इस तरह - एक सूर्य दूसरे मंडल में गया अत: दो योजन और अड़तालीस अंश दूर जाता है, इसी तरह दूसरा सूर्य भी इस प्रकार करने से दूर जाता है, इससे प्रत्येक मंउल में उनका परस्पर अन्तर पांच योजन पैंतीस अंश बढ़ जाता है । इसी प्रकार से जब ये दोनों सूर्य सर्व बाह्य मंडल में विचरते हैं, तब उनका परस्पर अन्तर एक लाख छ: सौ साठ योजन होता है । उसके बाद सर्व बाह्य मंडल में से पुनः अन्दर प्रवेश होते समय में सर्व बाह्य मंडल के पास का प्रथम मंडल में आता है तब दोनों सूर्यों के बीच का अन्तर एक लाख छ: सौ चौंवन योजन और छत्तीस अंश होता है । इस तरह अन्दर आए प्रत्येक मंडल में उनका अन्तर पांच योजन और पैंतीस अंश घटता जाता है । (५३-५८) एवं पूर्वोदितमेव सर्वाभ्यन्तर मंडले । मिथोऽन्तरं द्वयोः भान्वोः पुनस्तदवशिष्यते ॥५६॥

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